Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
भाषा
लोभकषायोदयान्मूर्छा परिग्रहः॥३॥ लोभ कषाय नामक कषायवेदनीय कर्मके उदयसे यह मेरा है' इसप्रकारका जो मूल रूप संकल्प है। उसका नाम परिग्रह है।
___ मानकषायोदयापादितोऽभिमानः ॥४॥ मानकषायरूप कषायवेदनीय कर्मके उदयसे ,जो मैं भी हूँ' इत्यादि स्वरूप अहंकारका उत्पन्न होना || || Bा है वह अभिमान है । गतिश्च शरीरं च परिग्रहश्श अभिमानश्च गतिशरीरपरिग्रहाभिमानाः, तैः, गति- ॥
शरीरपरिग्रहाभिमानतः। यह सूत्रस्थ "गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतः" इस शब्दकी व्युत्पचि है। इसका
आद्यादिगणमें पाठ होनेसे 'आद्यादिभ्य उपसंख्यानं' इससे तनि प्रत्यय हुआ है। यदि यहाँपर गति-है। || शरीरपरिग्रहाभिमानेभ्यः, इति गीतशरीरपरिग्रहाभिमानतः, यह अपादानकी विवक्षा की जायगी तो PI तसि प्रत्यय न होगा क्योंकि अपादानेहीयरुहो' इस सूत्र से हीय और रुह धातुओंके संबंध न रहनेपर का
अपादान अर्थमें तसि प्रत्ययका विधान माना है। सूत्रों हीनाः' पदका उल्लेख रहनेसे यहां हीय धातुका | योग है इसलिए 'अभिमानतः' यहॉपर अपादान अर्थमें तमि प्रत्ययकी योग्यता नहीं हो सकती।
..' गतिगृहेणमादौ लक्षणाययोगात ॥५॥ . व्याकरण शास्त्रमें सु और घि संज्ञा मानी है जो शब्द सु और घिसंज्ञक होते हैं द्वंद्व समासमें उनका द |'द्वे सुधिसः' इस सूत्रसे पूर्व निपात होता है। तथा जिन शब्दोंमें थोडे स्वर रहते हैं उनका भी अल्पा. . १-शब्दार्णवचंद्रिकामें 'द्वंद्वेसुधिसः' इस सूत्रकी जगह द्वंद्वे घिस्वेकं १।३। ११२ । द्वे विसं सुसंझं चैकं पूर्व प्रयोक्तव्यं । २ बंटे सेऽल्पान्तरमेकं पूर्व प्रयुज्यते । धवखदिरौ । वाग्वायू । प्लक्षन्यग्रोधं ।
PROSPERISRUS
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