Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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REGLISTRATHOREORRECISION
कह आए हैं उसीप्रकार चंद्रमाकी भी सर्व वाह्य और अभ्यंतर मंडलोंकी चौडाई एवं मेरुते चंद्रमाके
अंतरका प्रमाण समझ लेना चाहिये । चंद्रमाके जो पंद्रह मंडल कह आए हैं उनके चौदह अंतर हैं। | उनमें से प्रत्येक मंडलका एक दूसरेसे अंतरका प्रमाण पैंतीस योजन और एक योजनके इकसठि भागों के ट्र मेंसे तीस भाग एवं इकसठि भागों से एक भाग के सातभाग करनेपर चार भागप्रमाण है। समस्त अभ्यं
तर मंडलमें पांच हजार तिहचर योजन और सात हजार सातसे चालीस का तेरह हजार सातसै पची सवां भागप्रमाण ठहरकर चंद्रमा एक मुहूर्नमें अशिष्ट क्षेत्रोंमें गमन करता है अर्थात् सर्व अभ्यंतर है मंडलमें चंद्रमाका गमनक्षेत्र एक मुहूर्तमें पांच हजार तिहत्तर योजन और पात हजार मातसे चवालीसका तेरह हजार सातसै पचीप्त भागप्रमाण है और सर्व वाह्य मंडल में पांच हजार एकसौ पचौर योजन और छह हजार नौसे नब्बेका तेरह हजार सातौ पचीसवां भागप्रमाण चंद्रयाका एक मुहूर्तमें गमन
क्षेत्र । जिसप्रकार सूर्यका दर्शनका विषय कह आए उसी प्रकार चंद्रमा का भी समझ लेना चाहिये। हैकमती बढतीका विधान जैसा आगममें लिखा है वैसा जानलेना चाहिये । सूर्य और चंद्रमाके चार क्षेत्रकी है चौडाई पांच दश योजनप्रमाण है ॥१३॥
घडी घंटा पल दिन आदि समस्त काल व्यवहार काल है उसकी उत्पचि गतिमान सूर्य चंद्रमा , , आदि ज्योतिषियों के संबंधसे है, यही बात अब सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं
तत्कृतः कालविभागः॥१४॥ समयका विभाग अर्थात् घडी पल दिन रात्रि आदिका व्यवहार गमनशील सूर्य चंद्रमा आदिके द्वारा सूचित होता है। सूत्रमें जो तत् शब्द है वार्तिककार उसका प्रयोजन बतलाते हैं
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