Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यायः
, कायोंका वर्णन किया गया है कालको अस्तिकाय नहीं माना गया इसलिए मुख्यकाल व्यवहारकालसे
भिन्न कोई भी विशिष्ट पदार्थ नहीं ? उत्तर-मुख्यकालको सिद्ध करनेवाला कोई निर्दोष हेतु नहीं है यह | 2 जो कहा गया है वह अयुक्त है क्योंकि
क्रियायां काल इति गौणव्यवहारदर्शनान्मुख्यासिद्धिः॥२॥ क्रियामें काल अर्थात् क्रियानिमित्तककाल है यह गौणरूपसे कालका व्यवहार होती है। गौण मुख्यके बिना हो नहीं सकता इसलिए गौणकालसे मुख्यकालकी सिद्धि निरापद् है अर्थात सूर्यके गमन * आदिमें जो क्रिया होती है वह काल है, यह जो उस क्रियाको रूढिसे व्यवहारकाले माना है वह व्यवहार है काल भी मुख्यकालकी रचनापूर्वक है अर्थात् मुख्यकालकी सत्ता माने बिना उस क्रियाको व्यवहारकाल से नहीं कहा जा सकता। जिसतरह 'गौर्वाहीकः' अर्थात् यह ग्वाला कोरा बैल है। यहांपर ग्वालामें जो
गौणरूपसे बैलका व्यवहार है वह अन्यत्र मुख्यरूपसे बैलके रहते ही है। यदि मुख्यरूपसे बैल पदार्थ ७ संसारमें न होता तो गौणरूपसे ग्वालामें बैलका व्यवहार नहीं हो सकता था इसरीतिसे जब यह बात 16 युक्तियुक्त है कि बिना मुख्यके गौण नहीं हो सकता तब गौण काल के माने जानेपर मुख्पकालकी सचा हूँ अवश्य माननी होगी। तथा
अतएव न कलासमूह एव कालः॥३॥ उपर्युक्त रीतिसे जब मुख्यकालकी सत्ता निश्चित है तब "कलाओंका समूह ही काल है । कला]. क्रियाके अवयवरूप है इसलिए क्रियास्वरूप ही काल है" यह जो ऊार कहा गया था उस रूपसे क्रियाका | २०६९ भी काल नाम नहीं कहा जा सकता किंतु वह विभिन्न ही पदार्थ है। 'कल्प्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रिया |
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