Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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१०रा०॥ भाषा
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ढाईदीपके ज्योतिषियोंका वर्णन कर दिया गया अब ढाईद्वीपसे बाहिरके द्वीप और समुद्रों में
अध्याय रहनेवाले ज्योतिषियोंकी अवस्थाका सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं
बहिरवास्थिताः ।। १५॥ ___ मनुष्यलोकके बाहिर जो सूर्य चंद्रमा आदि ज्योतिष्क देव हैं वे अवस्थित-स्थिर हैं अर्थात् जहाँके | तहां ही रहते हैं गमन नहीं करते।
___ऊपरके 'मेरुप्रदक्षिणाः' इत्यादि सूत्रसे यहांपर नृलोक शब्दकी अनुवृत्ति आ रही है इसलिये IRI 'बहिरवस्थिताः' यहाँपर मनुष्यलोकसे बाहिरके सूर्य चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देव अवस्थित है, यह
अर्थ लेना चाहिये। शंकाII मनुष्य लोकसे वाहिर' ऐसा अर्थ होनेपर 'नृलोकात्' ऐप्से पंचम्यंत पदकी अनुवृत्ति प्रयोजनीय
| है किंतु "मेरुप्रदक्षिणा" इत्यादि सूत्रमें 'नृलोक' ऐसे सप्तम्यंत पदका उल्लेख किया गया है । सप्तम्यंत || है नलोक शब्दका अर्थ यहां आवश्यक नहीं इसलिए यहांपर नृलोक शब्दको अनुवृत्ति कार्यकारी नहीं।
सो ठीक नहीं 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः' अर्थात् जहाँपर जिस विभक्तिके अनुकूल अर्थ होता है वहांपर उसी अर्थके अनुसार अनुवर्तन किये गये शब्दकी विभक्तिका परिवर्तन कर लिया जाता है। 'वहिरवस्थिताः' यहाँपर पंचम्यंत नृलोक शब्दकी अनुवृचिका प्रयोजन है इसलिए 'नृलोके' यहाँपर की सप्तमी | विभक्तिका परिवर्तन कर पंचमी विभक्ति मानली है इस रीतिसे विभक्तिका परिवर्तन मान लेनेपर 8 उपर्युक्त सूत्रका अर्थ अबाधित है। शंका
.. नृलोके नित्यगतिवचनादन्यत्रावस्थानसिद्धिरिति चेन्नोभयासिद्धेः॥१॥
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