Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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का है परंतु सौधर्म आदि स्वर्गोंमे असंख्येय असंख्पेय योजनोंका अंतर माना गया है इसलिए सामीप्य || भाषा
रूप अर्थके न रहते 'उपर्युपरि' यहाँपर द्वित्व बाधित है ? सो ठीक नहीं। समान जातिके पदार्थसे व्यव
धानका न होना सामीप्य पदका अर्थ माना गया है । सौधर्म आदि स्वर्गों में यद्यपि असंख्येय योजनोंका | १०४३४॥
फासला है तथापि समान जातीय किसी पदार्थका व्यवधान नहीं इसलिये सामीप्य अर्थकी विद्यमान तामें उपर्युपरि यहांपर द्वित्व बाधित नहीं । शंका-ऊपर ऊपर हैं, ऐसे कहनेपर यह विचार उपस्थित होता है कि देव ऊपर ऊपर हैं कि विमान ऊपर ऊपर हैं वा स्वर्ग ऊपर ऊपर हैं अथवा कामचार है अर्थात् | कहीं देवोंका ग्रहण है कहीं विमानका तो कहीं स्वर्गोंका ग्रहण है ? वार्तिककार उचर प्रत्युत्तरपूर्वक इस बातका विवेचन करते हैं
देवा इति चेन्नानिष्टत्वात ॥२॥ देव ऊपर ऊपर हैं यदि यह कहा जायगा तो वह ठीक नहीं क्योंकि देव ऊपर ऊपर हैं यह बात MI आगमके विरुद्ध होनेसे अनिष्ट है इसलिये देवोंका ऊपर ऊपर अवस्थान नहीं माना जासकता। .
विमानानीति चेन्न श्रेणिप्रकीर्णकानां तिर्यगवस्थानात् ॥३॥ यदि यह कहा जायगा कि विमान ऊपर ऊपर अवस्थित हैं यह भी ठीक नहीं क्योंकि हर एक ई इंद्रक विमानकी चारो दिशाओंमें रहनेवाले श्रेणिवद्ध विमान और विदिशाओंमें रहनेवाले पुष्पप्रकी॥णक विमान तिर्यक् रूपसे अवस्थित हैं इसलिये विमानोंका ऊपर ऊपर मानना विरुद्ध होनेसे इष्ट नहीं।
कल्पा इति चेददोषः॥४॥ यदि कहा जायगा कल्प ऊपर ऊपर अवस्थित हैं तब कुछ दोष नहीं। तथा जिस बातके माननेमें
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