Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मान
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||६|| अर्थात् एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका उदय इतने फासलासे होता है । मेरु पर्वतसे चवालीस. हजार आठसे भाषा ||६|| बीस योजनकी दुरीसे समस्त अभ्यंतर मंडलको सूर्य प्रकाशित करता है। उस अभ्यंतर मंडलकी चौडाई
| निन्यानवे हजार छहसै चालीस योजन प्रमाण है। उस समय दिनमान अठारह मुहूर्तका होता है। | एक मुहूर्तमें सूर्यकी गतिका क्षेत्र पांच हजार दोसे इक्यावन योजन और उनतीस योजनका साठिवां भागप्रमाण है । अर्थात् एक मुहूर्तमें सूर्य इतने प्रमाण क्षेत्रको तय कर लेता है।
जिससमय सूर्य समस्त वाह्यमंडलमें गमन करता है उससमय मेरुपर्वतसे पैंतालीस हजार तीनसौ | तीस योजनकी दूरीसे उसे प्रकाशित करता है। उस वाह्यमंडलका विस्तार एक लाख छहसौसाठियोजन प्रमाण है । उससमय दिनमानबारह मुहूर्तका होता है । एक मुहूर्तमें सूर्यको गतिका क्षेत्र पांच हजार तीनसै पांच योजन और पंद्रह योजनका साठिवां भागप्रमाण है अर्थात् एक मुहूर्तमें सूर्य इतने योजनप्रमाण क्षेत्रको तय करता है। उससमय सर्व अभ्यंतर मंडलमें इकतीस हजार आठसौ साढे बचीस योजनप्रमाण क्षेत्रमें विद्यमान सूर्य दीख पडता है । अर्थात् भरतक्षेत्रमें रहनेवाला मनुष्य इकतीस हजार आठसौ साढे बत्तीस ३१८३२३ योजनकी दूरीपर सर्व अभ्यंतर मंडलमें सूर्यको देखता है। दर्शनका कितना विषय है यह दूसरे अध्यायमें इंद्रियोंके वर्णनमें कर आए हैं। बीच में कम बढती दर्शनका विषय आगमके अनुसार समझ लेना चाहिये।
चंद्रमाके मंडल-गलियां पंद्रह हैं। जिसप्रकार सूर्यका अवगाहन द्वीप और समुद्रमें कह आए हैं | उसीप्रकार चंद्रमाका भी समझ लेना चाहिये । द्वीपके भीतर चंद्रमाके पांच मंडल हैं और समुद्र में दश ॥ हैं। जिसप्रकार सूर्यके सर्व वाह्य और सर्व अभ्यंतर मंडलोंकी चौडाई और मेरुसे सूर्यके अंतरका प्रमाण
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