Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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शरीररहित ईश्वरमें सदा सर्वज्ञत्वकी सिद्धि ही उन दोनों ज्ञानोंके माननेका प्रयोजन है ? वह भी ठीक नहीं । क्योंकि शंकाकारके मतमें अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि सामग्रीको प्रमाण माना गया है तथा अनित्यस्वरूप सदा समस्त पदों के ज्ञानको फल माना गया है उसीसे ईश्वर में सर्वज्ञत्वकी सिद्धिकी व्यवस्था है इसलिये सर्वज्ञत्वकी सिद्धिकी व्यवस्थाकेलिये नित्य और अनित्यस्वरूप दो ज्ञानोंकी ईश्वर में कल्पना करना निरर्थक है। शंका___ईश्वरको अशरीर माना है । अशरीरके जिसप्रकार इंद्रियसन्निकर्षका अभाव है उसीप्रकार उसके अंतःकरणके सन्निकर्षका भी अभाव है इसलिये सन्निकर्ष सामग्रीको योग्यता नहीं होनेसे सन्निकर्ष आदि तो प्रमाण कहे नहीं जासकते इसलिये अनादिकालीन समस्त पदों का विषयकरनेवाला नित्यज्ञान ही प्रमाण मानना चाहिये ? सो ठीक नहीं । शरीरके अभावमें इंद्रिय सन्निकर्ष वा अंतःकरण संन्निकर्षकी योग्यता न भी हो तथापि आत्मा और पदार्थ संन्निकर्षकी योग्यता है इसलिए अशरीर ईश्वर के भी आत्मा और पदार्थके सन्निकर्षकी योग्यता रहने के कारण सन्निकर्षको प्रमाण मानने में किसी प्रकारको है आपचि नहीं हो सकती। तथा
यह भी बात है कि युगपत् समस्त पदार्थों के साथ सनिकर्ष होनेसे महेश्वरके एक साथ समस्त पदा. थोंका ज्ञान हो जाता है ऐसा भी कोई कोई मानते हैं। इस कथनसे सन्निकर्षको ही प्रमाणता आती है
ईश्वरके नित्यज्ञानको प्रमाणता नहीं आती इसलिये 'ईश्वरोन जगनिमित्त निर्देहत्वात् मुक्तात्मवत्' अर्थात् हूँ जिसतरह मुक्तात्मा देहरहित है इसलिये वह जगतका निमित्त कारण नहीं माना गया उसीप्रकार ईश्वर
भी शरीररहित है इसलिये वह भी जगतका निमित्त कारण नहीं बन सकता । यह अनुमान किसी रूपसे किसी भी प्रमाणसे वाधित नहीं। शंका
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