Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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BIOGROFESSISTAN
ज्ञान होता नहीं । 'दयोयोः' इतना अधिक जोड देनेसे भी इष्ट अर्थकी सिद्धि होती नहीं तो फिर NOTIC वास्तविक अर्थकी प्रतीतिकेलिये 'यथागम' उक्त सूत्रमें जोड देना उचित है जिससे आगमके अनुसार संबंध कर लिया जायगा वार्तिककार इसका उचर देते हैं कि
___नवा पुनः प्रवीचारगृहणादिष्टार्थगतेः॥५॥ नहीं, सूत्रमें कुछ भी अधिक जोडनेकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि कायप्रवीचारा आऐशानात्' . इस सूत्रमें प्रवीचार.शब्द कह आए हैं उसकी अनुवृति शेषाः स्पर्शेत्यादि सूत्रमें प्राप्त थी फिर जो इस सूत्रमें पुनः प्रवीचार शब्दका ग्रहण किया गया है उससे अमुक स्वर्ग तकके देव स्पर्शप्रवीचार हैं, अमुक । स्वर्गतकके देव रूपप्रवीचार हैं इत्यादि इष्ट-आगमानुकूल अर्थकी सिद्धि हो जाती है । शंका___ 'कायप्रवीचारा" इतना समासांत पद है इसलिए यहांपर प्रवीचार शब्द समासके अंतःपाती होनेसे गौण है। गौणकी अनुवृत्ति होती नहीं किंतु मुख्यकी ही अनुवृचि होती है इसलिए इस सूत्रों प्रवीचार शब्दकी अनुवृत्ति नहीं आ सकती? सो ठीक नहीं। यदि विशेष प्रयोजन हो तो गौणस्वरूप शब्दकी भी अनुचि कर ली जाती है। यदि यहाँपर यह कहा जाय कि शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनासु' इतनामात्र कहने पर 'प्रवीचार' इन पांच अक्षरोंका महान लाघव तो होता परंत ऊपर 'प्रविचरणं प्रवीचार. इस भावसाधन व्युत्पचिके अधीन भावलाधन अर्थमें 'घ' प्रत्ययकर प्रवीचार शब्द सिद्ध कर आए हैं इसलिए जब प्रवीचार शब्द भावसाधन है तब शेष पदके साथ बिना समास किए उसका सामानाधिकरण्य न बन सकता इसलिए पुनः प्रवीचार शब्द ग्रहण किया गया है सो ठीक नहीं, सूत्रमें जो 'शेषा ऐसा उल्लेख है उसकी जगहपर 'शेषाणां' ऐसा कह सकते थे और तब ऊपरके सूत्रसे अनुवर्तन किए गये
उनल्याचमाजाबलचकन्य
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