Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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प्रवीचार शब्दका अर्थ विषयजन्य वेदनाका प्रतीकार है। सोलहवें स्वर्गसे आगेके स्थानोंमें रहनेवाले देवोंमें प्रवीचार नहीं है इसलिए उस प्रवीचारके अभाव में वे सदा परमसुखका अनुभव करते हैं इस तु वातके सूचन करनेकेलिए सूत्र में अप्रवीचार शब्दका ग्रहण है।
विशेष-यदि यहॉपर-यह शंका की जाय कि 'विवादापन्नाः सुराः कामवेदनाक्रांताः सशरीरत्वात् प्रसिद्धकामुकवत्' अर्थात् कल्पातीत देवोंके शरीरका संबंध है इसलिये उन्हें भी कामवेदनासे व्याप्त होना । चाहिये क्योंकि जहां जहां शरीरका संबंध रहता है वहां वहां नियमसे कामवेदना रहती है। जैसे प्रसिद्ध कामी पुरुषके शरीरका संबंध है इसलिये उसके कामवेदना भी है। सो ठीक नहीं । कामवेदनाके अभावका शरीरके साथ कोई विरोध नहीं है अर्थात् जहाँपर शरीर हो वहांपर कामवेदना होनी ही चाहिये है
यह नियम नहीं क्योंकि इसीलोकमें किन्हीं किन्हीं मनुष्यों के शरीर होनेपर भी कामवेदनाकी मन्दता है ' वा अत्यन्त मंदता (अभाव) दीख पडती है । तथा यह भी व्याप्ति नहीं कि जहाँपर कामवेदना को । हीनता होगी वापर शरीर भी हीन होगा क्योंकि चार घातिया काँको मूलसे नष्ट करनेवाले केव.. लियोंके कामवेदनाका सर्वथा अभाव रहता है परंतु अत्यन्त देदीप्यमान शरीरसे वे विराजमान रहते हैं। इसतिसे शरीरके विद्यमान रहते भी जब कामवेदनाका अभाव प्रमाणसिद्ध है तब कल्पातीत देवोंके १ शरीरोंकी विद्यमानतामें कामवेदनाका अभाव होना युक्तिसंगत है । उक्त अनुमानमें जिसप्रकार शरीर- हूँ त्व हेतु दिया गया है उसकी जगह बहुतसे मनुष्य 'सत्त्वात्' वा 'प्रमेयत्वात्' आदि हेतु देकर कल्पातीत है * देवोंके कामवेदनाकी सत्ता सिद्ध करते हैं उनके भी सत्त्व आदि हेतु व्यभिचारदोषग्रस्त होनेसे मिथ्या
१-श्लोकवार्तिक पृष्ठ संख्या ३७४ ।