Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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राक्षसोंके दूसरे इंद्र महाभीमके भी पंकबहुलभागमें असंख्यात लाख नगर हैं । इन सोलहो प्रकारके
अध्याय इंद्रोंके सामानिक त्रायस्त्रिंश आदि परिवार समान हैं। यह तो पातालमें व्यंतरोंके आवासका कथन किया गया है परंतु पृथ्वीतलपर भी दीप पर्वत समुद्र देश गांव नगर त्रिक (तिराया) चौराया चबूतरा घर आंगन गली तालाब वगीचा और मंदिर आदि असंख्यात लाख उनके रहनेके स्थान हैं॥१२॥
भवनवासी और व्यंतर इन दो निकायोंकी सामान्य विशेष संज्ञाओंका वर्णन कर दिया गया अब तीसरे ज्योतिष्क निकायकी सामान्य विशेष संज्ञाओंका वर्णन करनेकेलिये सूत्र कहते हैं
ज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२॥ सूर्य चंद्रमा ग्रह नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे इसतरह पांच प्रकारके ज्योतिष्क देव हैं
द्योतनस्वभावत्वाज्ज्योतिषकाः ॥१॥ज्योतिःशब्दात्वार्थे के निष्पत्तिः॥२॥ द्योतनका अर्थ प्रकाश करना है जिनका प्रकाश करनेका ही स्वभाव हो वे ज्योतिष्क कहे जाते हैं। सूर्य आदि पांचोंकी ज्योतिष्क यह अन्वर्थ और सामान्य संज्ञा है। ज्योतिष्क शब्दकी सिद्धि ज्यो. तिष शब्दसे स्वार्थमें कप्रत्यय करनेपर होती है। यहांपर यह शंका न करनी चाहिये कि ज्योतिष् शब्दसे स्वार्थमें कप्रत्यय किस सूत्रसे होगा ? क्योंकि ज्योतिष् शब्दका यवादि गणमें पाठ है । यवादिगणसे स्वार्थमें कप्रत्ययका विधान है इसलिये यहांपर कप्रत्यय बाधित नहीं । शंका
प्रकृतिलिंगानुवृत्तिप्रसंग इति चेन्नातिवृत्तिदर्शनात् ॥३॥ 2 ज्योतिः शब्द नपुंसक लिंग है। यदि स्वार्थमें उससे 'क' प्रत्यय किया जायगा तो ककारांत ज्योतिष्क 5 १९२२
शब्दको भी नपुंसक लिंग कहना होगा इससीतसे सूत्रमें ज्योतिष्का' यह पुर्लिंगांत ज्योतिष्क शब्द.
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