Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
१०१३
- सोलह स्वर्गपर्यंतके देवोंमें विषयजनित सुखकी व्यवस्था कह दी गई अब आगेके स्थानों में रहने | वाले देवोंके किस प्रकारका सुख है ? सूत्रकार उसका स्पष्टीकरण करते हैं
परेप्रवीचाराः॥६॥ ॥ सोलह स्वर्गौसे आगेके अर्थात् अच्युतस्वर्गसे ऊपर नव अवेयकोंके ९विमान, नव अनुदिश विमान | है और पांच अनुचर विमान इन सबमें रहनेवाले देव अप्रवीचार-कामसेवनरहित हैं-इनके कामवासना lal होती ही नहीं । शंका-'अप्रवीचारा' इतनेमात्र कहनेसे ही आगेके देवोंका. ग्रहण प्राप्त था क्योंकि
सोलहवें स्वर्ग तकके देवोंका सुख तो उपर्युक्त सूत्रोंसे कह दिया गया इसलिए उनसे आगेके स्थानों में | रहनेवाले देव प्रवीचाररहित होते हैं यह ही अर्थ 'अपवीचाराः' इतने सूत्रका होता फिर उनके ग्रहण || करनेकेलिए परे' शब्दका क्यों ग्रहण किया गया ? उत्तर
परवचनं कल्पातीतसर्वदेवसंग्रहार्थं ॥१॥ . || सौधर्मसे अच्युतपर्यंत स्वर्गों का नाम कल्प है। इन स्वर्गौसे आगेके स्थानों में रहनेवाले देव कल्पा-18 18|| तीत कहे जाते हैं। उन समस्त कल्पातीत देवोंके संग्रहार्थ 'पर' शब्दका उल्लेख किया गया है। अन्यथा | र अर्थात् यदि सूत्रमें 'पर' शब्दका ग्रहण नहीं किया जाता तब शेष देव स्पर्शप्रवीचार आदि हैं और अप-1 है| वीचार भी हैं यह भी अनिष्ट अर्थ होता इसलिए इस अनिष्ट अर्थके निराकरणार्थ सूत्रमें पर शब्दका | ग्रहण अत्यंत प्रयोजनीय है।
___ अप्रवीचारगृहणं प्रकृष्टसुखप्रतिपत्त्यर्थ ॥२॥ १२८
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