Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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०रा० भाषा
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शेषाः शर्परूपशब्दमनःप्रवीचाराः॥८॥
मध्यांव बाकी ऊपरके स्वर्गोंके देव स्पर्श करनेसे, रूप देखनेसे, शब्द सुननेसे और विचारमात्र करनेसे प्रवी-150 चार वा कामसेवन करनेवाले हैं। सूत्रमें जो शेष शब्दका उल्लेख किया गया है वार्तिककार उसका प्रयोग हूँ जन बतलाते हैं
___ उक्तावशिष्टसंग्रहार्थं शेषगृहणं ॥१॥ ___ ऊपर जितने देवोंका उल्लेख किया गया है उनसे बाकीके देवोंके ग्रहणार्थ सूत्रमें शेषग्रहण है। वे देव यहांपर सनत्कुमार माहेंद्र आदि कल्पवासी ही लेना चाहिये । यदि यहांपर शेष ग्रहणसे सामान्यसे समस्त देवोंका ग्रहण होगा तो अवेयक आदि सर्वार्थसिद्धिपर्यंतके देव भी लिये जायगे फिर ||| 'परेऽप्रवीचारा' अर्थात अवेयक आदिके देव प्रवीचाररहित हैं यह जो आगेका सूत्र कहा गया है उसका कुछ भी अर्थ निश्चित न होनेसे उसे निरर्थक ही मानना पडेगा इसलिये यहाँपर शेषग्रहणसे सनत्कुमार आदि कल्पवासी देवोंका ही ग्रहण है। स्पर्शश्च रूपं च शब्दच मनश्च स्पर्शरूपशन्दमनांसि, स्पर्श| रूपशब्दमनःसु प्रवीचारो येषां त इमे स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः, यह यहाँपर बंदगर्भित वहुव्रीहि समास है। शंकाविषयविवेकापरिज्ञानादनिर्देशः॥२॥ द्वयोईयोरिति वचनात्सिद्धिरिति चेन्नार्षविरोधात् ॥३॥
इंद्रापेक्षयेति चेन्नानतादिषु दोषात् ॥४॥ 'शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः' ऐसे सूत्रके उल्लेख रहने पर अमुक देव स्पर्शप्रवीचार हैं २००९ | अमुक रूपप्रवीचार हैं इत्यादि भिन्न भिन्न रूपसे विषयका ज्ञान नहीं होता इसलिये उपर्युक्त सूत्रमें 'द्वयो
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