Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
न रहनेपर भी वीप्सा अर्थकी प्रतीति है उसीप्रकार 'द्वींद्राः ' यहाँपर भी वुन् प्रत्ययके अभावमें वीप्सा अर्थ लिया जासकता है। वीप्सा अर्थक विषयभूत वे दो दो इंद्र कौंन माने गये हैं वार्तिककार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
भवनवासियोंके असुरकुमार आदि दश भेद हैं उनमें असुरकुमारोंके चमर और वैरोचन ये दो छ 1 इन्द्र हैं। नागकुमारोंके चरण और भूतानंद, विद्युत्कुमारोंके हरिसिंह और हरिकांत, सुपर्णकुमारोंके
वेणुदेव और वेणुघारी, अग्निकुमारोंके अग्निशिख और अग्निमाणव, बातकुमारोंके वैलब और प्रभं. जन, स्तनितकुमारोंके सुघोष और महाघोष, उदधिकुमारोंके जलकांत और जलप्रभ, द्वीपकुमारोंके पूर्ण है और वशिष्ट एवं दिक्कुमारोंके अमितगति और आमितवाहन ये दो इन्द्र हैं। . व्यंतरोंके किन्नर और किंपुरुष आदि आठ भेद माने हैं उनमें किन्नरोंके किन्नर और किंपुरुष ये
दो इंद्र हैं। किंपुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगोंके अतिकाय और महाकाय, गधोंके गीतरति 1 और गीतयश, यक्षोंके पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, पिशाचोंके काल और महा काल, भूतोंके प्रतिरूप और अप्रतिरूप ये दो इंद्र हैं ॥६॥ . देवोंका कैसा सुख है ? सूत्रकार उस सुखके ज्ञापनार्थ सूत्र कहते हैं
' कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥७॥ ऐशान वर्गपर्यंतके देवोंमें अर्थात् भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्कोंमें तथा सौधर्म ऐशान दो स्वगोंके हैं देवोंमें मनुष्य आदिके समान शरीरसे काम सेवन होता है।
मैथुनोपसेवनं प्रवीचारः॥१॥
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