Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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. समूहसमूहिनोः कथंचिदातरत्वोपपत्तेर्मेदविवक्षा ॥१॥ नाम स्वरूप और प्रयोजन आदिके भेदसे समूह और समूही अर्थात् जिनका समूह है उन पदा-16 |ौँका लोकमें कथाचित् भेद देखा जाता है जिसप्रकार यह राशि चावलोंकी है । यह वन आम्रवृक्षोंका है। है। यहांपर यद्यपि राशिमे चावल और वनसे आम्रवृक्ष भिन्न नहीं किंतु राशिस्वरूप ही चावल और है वनस्वरूप ही आम्रवृक्ष हैं तथापि नाम आदिके भेदसे उनका आपसमें भेद माना जाता है उसीप्रकार नाम | और स्वलक्षण आदिके भेदसे देवोंका भी निकायसे कथंचित् भेद है इसरीतिसे निकाय और देवोंका आपसमें कथंचित अर्थात् नाम स्वलक्षण प्रयोजन आदिसे भेद माननेपर पहिले दो निकायोंमें दो दो। | इंद्र हैं यह अधिकरण रूपसे अथवा आदिके दोनों निकायसंबंधी दो दो इंद्र हैं यह संबंधी रूपसे निर्देश अयुक्त नहीं।
. हींद्रा इत्यंत तवीप्सार्थों निर्देशः॥३॥ जिनके दो दो पाद हों वे द्विपदिक कहे जाते हैं एवं जिनके तीन तीन पाद हों वे त्रिपदिक कहे || जाते हैं जिसप्रकार यहां पर वीप्सागर्भित निर्देश माना है उसीप्रकार जिनके दो दो इन्द्र हों वे वींद्र | कहे जाते हैं यहांपर भी 'दीद्राः' यह वीप्सागर्मित निर्देश है। यदि यहाँपर यह कहा जाय कि-..
वीप्सा अर्थमें वुन् प्रत्ययका विधान माना है। द्विपदिका त्रिपदिका यहांपर वुन प्रत्ययका विधान | है इसलिये यहाँपर वीप्सा अर्थ माना जा सकता है। द्वींद्राः' यहांपर वुन् प्रत्यय है नहीं इसलिये यहां | पर वीप्सा अर्थ नहीं लिया जा सकता ? तब इसका समाधान यह है कि-जिसके सात सात पचे हों वह सप्तपर्ण और जिसके आठ आठ पैर हों वह अष्टापद कहा जाता है, यहांपर जिसप्रकार वुन् प्रत्ययके
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