Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
पूर्वयोरिति वचनं प्रथमद्वितीयनिकायप्रतिपत्त्यर्थ ॥१॥ । सूत्रमें जो पूर्वयो' यह वचन है वह आदिके दो निकायोंके ग्रहणार्थ है अर्थात् भवनवासी और व्यंतर दोनों निकायोंमें दो दो इंद्र हैं। यदि यहांपर यह कहा जाय कि
पूर्व शब्द पहिले निकायका तो ग्राहक हो सकता है दूसरा निकाय तो पूर्व हो नहीं सकता इसलिये । दूसरे निकायका पूर्व शब्दसे ग्रहण कैसे होगा ? उसका समाधन यह है कि जिसप्रकार दुसरेकी अपेक्षा
पहिला पूर्व कहा जाता है उसीप्रकार तीसरेकी अपेक्षा दूसरा भी पूर्व कहा जा सकता है इसलिये यहां
तीसरेकी अपेक्षा दसरा निकाय पूर्व होनेसे पूर्व शब्दसे दूसरे निकायका ग्रहण अबाधित है। यदि कदा१ चित् यहांपर यह कहा जाय कि-..
जिस तरह तीसरेकी अपेक्षा दूसरेको पूर्व मानकर पूर्व शब्दसे दूसरे निकायका ग्रहण कर लिया। तू जाता है- उसीप्रकार चौथेकी अपेक्षा तीसरा भी पूर्व है इसलिये सूत्रमें स्थित पूर्व शब्दसे तीसरे निकायका ॥
भी ग्रहण कर लेना चाहिये इसरीतिसे पहिले और दूसरे निकायोंमें ही दो दो इंद्र हैं यह कहना बाधित है ? सो ठीक नहीं। पहिले भवनवासी निकायको तो पूर्व कहना ही पड़ेगा। उसके समीपमें दूसरे निका
यका ही प्रतिपादन है तीसरेका नहीं इसलिये प्रत्यासत्ति संबंधप्से पहले के समीप दूसरा ही पड़ता है इसी ||5 ६ लिये पूर्व शब्दसे दूसरे ही निकायका ग्रहण हो सकता है तीसरेका नहीं। पूर्व शब्द द्विवचन है इसलिये आदिके दोका ही ग्रहण होगा । शंका
देवोंके समूहका नाम निकाय है। निकाय देवोंसे भिन्न पदार्थ नहीं इसरीतिसे जब निकाय और | है इंद्रोंमे आपसमें भेद नहीं तब पहिलेके दो निकायों में दो दो इंद्र हैं यह भिन्न रूपसे निर्देश नहीं करना
चाहिये किंतु अभिन्न रूपसे ही निर्देश युक्त होगा। वार्तिककार इसका उत्तर देते हैं
EHENSTRISTRI
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