Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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हूँ सका विधान साधनं कृता बहुलं ।।३।३०' इस सूत्रसे अथवा मयूरव्यंसकादिगणमें पाठ होनेसे 'मयूरहै व्यसकादयश्च ।।३।६३ । इस सूत्रसे समझ लेना चाहिये ॥३॥
उपयुक्त देवोंका ही विशेष प्रतिपादन करनकोलये सूत्र कहते हैंइंद्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णका
भियोग्याकल्पिषिकाश्चैकशः॥४॥ भवनवासी आदि चारों प्रकारके देवोंमें इंद्र सामानिक त्रायस्त्रिंश पारिषद आत्मरक्ष लोकपाल अनीक प्रकीर्णक आभियोग्य और किल्विषिक ये दश दश भेद होते हैं।
परमैश्वर्यादिंद्रव्यपदेशः ॥१॥ अन्य देवों में न पाई जाय ऐसी अणिमा महिमा आदि अनेक ऋद्धियोंसे जो परम ऐश्वर्यको प्राप्त हो सो इंद्र हैं।
तत्स्थानार्हत्वात्सामानिकाः॥२॥ जिनके रहने के स्थान आयु वीर्य परिवार और भोग उपभोग आदि तो इंद्रके ही समान हो परंतु आज्ञा और ऐश्वर्य इंद्रके समान न हों वे सामानिक देव कहे जाते हैं। समाने भवाः सामानिकाः अर्थात् स्थान आदिसे जो समान हों वे सामानिक कहे जाते हैं समानशब्दसे "समानाचदादेश्व" ३।२।
१-साधन कारक मांत कृदंतेन सह बहुलं पसो भवति । शन्दावचंद्रिका पृष्ठ संख्या २१। २-मयरव्यसकादयः शब्दाः पसंहाः गणपागदेव निवात्यन्ते । शब्दार्णवचंद्रिका पृष्ठ सख्या २४ ।
१-समानात् समानादेव ठया स्यात् । 'समाने भवाः सामानिकाः देवाः' पदार्णवचंद्रिका पृष्ठ संख्या ९५।
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