Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
*SAIRIDISH
| संख्यान और संख्येयकी भेद विवक्षा मानी जायगी उससमय त्रयास्त्रंशत् रूप संख्यान आधार होगा। 4 और त्रायस्त्रिंश आधेय होगा इसरीतिसे आधार और आधेयकी विद्यमानतामें दोनोंमें भेद रहनेसे उप
युक्त वृत्ति वाधित नहीं। अथवा- हृतः ३।१।८२। यहांपर 'हृत्' एसा एक वचनांत शब्दका ही उल्लेख उपयुक्त था फिर 'हृतः' टू यह बहुवचनांत जो उल्लेख किया गया है उसकी सामर्थ्यसे स्वार्थमें भी अण् आदि प्रत्ययोंका विधान है माना गया है इसलिये जिसप्रकार 'अंते भवः अंतिमः' यहांपर अंत शब्दसे स्वार्थिक डिमच् प्रत्यय कर | अंतिम शब्दकी सिद्धि मानी है उसीप्रकार त्रयस्त्रिंशदेव त्रायत्रिंशः' यहांपर त्रयस्त्रिंशत् शब्दसे स्वार्थमें अण् प्रत्यय करनेपर त्रायस्त्रिंश शब्द बना है इसलिये कोई दोष नहीं है।
वयस्यपीठमर्दसदृशाः पारिषदाः॥४॥ जो देव इंद्रकी सभामें बैठनेवाले हों अर्थात् इंद्रकी जो वाह्य अभ्यंतर और मध्यको तीनों प्रकारको सभामें बैठनेवाले हों वे पारिषद देव हैं। ये देवगण मित्रके समान इंद्रकी पिछाडी दाबकर अर्थात् इंद्रको आगे बिठाकर बैठते हैं।
___ आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमाः॥५॥ ___ अंगरक्षकोंके समान जो देव इंद्रकी रक्षा करनेवाले हों वे आत्मरक्ष देव हैं। ये देव सदा मारनेके | लिए उद्यत रुद्रपरिणामी वीर वेषके धारक और इंद्रकी पीठ पीछे खडे रहते हैं। शंका... हृत इत्ययमाधिकारो वेदितव्यः, आ इचः । शब्दार्णवचन्द्रिका पृष्ठ संख्या ७८ । सिद्धांतकौमुदीमें इस सूत्रकी जगह 'तद्धिताः ४।१।७६ यह सूत्र है।
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