Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
SHORECA
ALSOCHAM
S
१९९। इस सूत्रसे ठण् प्रत्यय करनेपर सामानिक शब्द सिद्ध हुआ है। ये सामानिक जातिके देव इंद्रके पिता गुरु और उपाध्यायके समान पूज्य होते हैं।
मंत्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिशाः॥३॥ जिसप्रकार राजाओंके मंत्री पुरोहित आदि हितकी शिक्षा देनेवाले होते हैं उसीप्रकार जो देव | इंद्रको मंत्री पुरोहितके समान हितकारी शिक्षा देनेवाले हों वे त्रायस्त्रिंश जातिके देव कहे जाते हैं।
(इन देवोंका त्रायस्त्रिंश यह नाम सार्थक है क्योंकि ये तेतीस ही होते हैं) 'त्रयस्त्रिंशति जाताः त्राय- 11 त्रिंशाः' अर्थात् तेतीसों में जो उत्पन्न हों वे त्रायस्त्रिंश देव कहे जाते हैं। यहांपर त्रयस्त्रिंशत् शब्दसे | 'तत्र जातः' अर्थमें अण् प्रत्यय किया गया है तथा 'दृष्ट नाम्नि च जाते च अण डिद्वा विधीयते' अर्थात् ||३|| । 'तत्र दृष्ट' इस अर्थमें, 'नाम' अर्थमें और 'तत्र जात' इस अर्थमें जो अण् प्रत्यय आता है वह डित् विकल्प || से होता है। यह भी व्याकरण शास्त्रका वचन है । त्रायास्त्रिंश यहांपर 'तत्र जात' अर्थमें अण् प्रत्ययकार का विधान है इसलिये त्रयस्त्रिंशत् शब्दसे जो अण् प्रत्यय किया गया है वह डित् है । जो डिन होता है अर्थात् ।
जिसका डकार इसंज्ञक जाता है उसकी टिका लोप हो जाता है यह भी व्याकरणका सिद्धांत है। त्रय-है। स्त्रिंशत् शब्दमें टिसंज्ञक 'अत्' है उसका लोप होनेपर और शकार अकारमें मिल जानेपर एवं आदि । वृद्धि अर्थात् "त्र" में जो अकार है उसको दीर्घ होनेपर त्रायस्त्रिंश शब्द बना है । शंका- . , जहां पर दो पदार्थ भिन्न भिन्न होते हैं वहीं पर वृत्ति होती है। त्रयस्त्रिंशत् और त्रायस्त्रिंश यहांपर। तो भेद है नहीं फिर 'त्रयाविंशति जातासायस्त्रिंशा यह जो वत्ति मानी गई है वह अयक्त है? सो ठीक नहीं। त्रयस्त्रिंशत् संख्यान-संख्यावाचक शब्द है और त्रायस्त्रिंश यह संख्येय शब्द है । जिस समय |
EARDAR
-GhusalheartBCHER