Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
'देवश्चतुर्णिकाय' यह एकवचनांत देव शब्दका प्रयोग ही उपयुक्त है अतः 'देवश्चतुर्णिकायः" ऐसा ही उल्लेख करना चाहिये ? सो ठीक नहीं। क्योंकि
बहुत्वनिर्देशोंऽतर्गतभेदप्रतिपत्त्यर्थः ॥२॥ इंद्र सामानिक त्रायस्त्रिंश आदि और आयु आदिके भेदसे देवों के बहुतसे भेद हैं उन सबके जनानेकेलिए 'देवाश्चतुर्णिकाया: यहांपर बहुवचनांत देव शब्दका उल्लेख किया गया है।
स्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यात् निचीयंत इति निकायाः॥३॥ देवगतिनाम कर्मके उदयस्वरूप जो निजी विशेष धर्म उसकी सामर्थ्य से जो समूहस्वरूप हो उनका नाम निकाय है अर्थात् निकाय शब्दका यहां संघात अर्थ है। जिनमें चार निकाय हों वे चतुर्णिकाय ' कहे जाते हैं। वे चारो निकाय भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क और वैमानिक हैं॥१॥
छह लेश्याओं से उपर्युक्त भवनवासी आदि निकायोंमें कितनी लेश्यायें होती हैं सूत्रकार इस । विषयका स्पष्टीकरण करते हैं
_ आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः ॥२॥ पहिलेके तीन प्रकारके देवोमें अर्थात भवनवासी व्यतर और ज्योतिष्कोंमें पीत लेश्या तक अर्थात् । कृष्ण नील कापोत और पीत ये चार लेश्या हैं।
आदित इति वचन विपर्यासनिवृत्त्ययं ॥१॥ । अंत और मध्यके ग्रहणके निषेधार्थ सुत्रमें 'आदितः' शब्दका उल्लेख किया गया है अर्थात् चारो