Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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द और पदार्थों का ग्रहण करनेवाला है। नेत्रोंका धारक न होकर भी पदार्थों को देखता है, कान न होनेपर NOTICI भी शब्दोंको सुनता है । वह समस्त ब्रह्मांडको जानता है परंतु उसका जाननेवाला दूसरा कोई नहीं इस
लिए उस पुरुषको परमर्षिगण प्रधान और महान मानते हैं। परंतु उनका मानाहुआ भी ईश्वर विलक्षण 2 रचनाके धारक पदार्थों के उत्पन्न करनेमें निमिच कारण नहीं हो सकता क्योंकि उन्हींका माना हुआ मुक्तात्मा जिसप्रकार शरीररहित होनेसे किसी भी कार्यकी उत्पत्ति में निमिच कारण नहीं हो सकता उसीप्रकार ईश्वरके भी शरीर नहीं माना गया इसलिए किसी भी कार्यकी उत्पचिमें उसे निमिच कारण 5 नहीं माना जा सकता । यदि यहांपर यह शंका की जाय कि
मुक्तात्माको हम अज्ञ-ज्ञानशून्य मानते हैं इसलिए वह जगतकी उत्पचिमें निमित्त कारण नहीं | कहा जा सकता, ईश्वर यद्यपि शरीररहित है तथापि वह नित्यज्ञानवान है इसलिए नित्यज्ञानवान होनेसे वह जगतका निमिचकारण हो सकता है ? सो ठीक नहीं। हेतु; अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकारको र व्याप्तियोंसे प्रायः युक्त रहता है तथा केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी भी हेतु होते हैं. जो कि अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकारकी व्याप्तियोंमेंसे एक एक व्यातिसे ही भूषित रहते हैं। यदि नित्यज्ञानवान होनेसे ईश्वरको जगतका कर्ता माना जायगा तो यहॉपर नित्यज्ञानस्वरूप हेतुका अन्वय और ॥ व्यतिरेक दोनों प्रकारकी व्याप्ति नहीं इसलिए वह ईश्वरमें जगतका कर्तृत्व नहीं सिद्ध कर सकता। शंका• जहां जहां नित्यज्ञानत्व हो वहां वहां जगत्कर्तृत्व होना चाहिये यह तो अन्वय व्याति है और जहां जहां जगत्कर्तृत्वका अभाव होगा वहां वहां नित्यज्ञानवका भी अभाव होगा यह व्यतिरेक व्याप्ति है।
जनक551585कलन
SABASAHEBAR