Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
PRESIDDHISTORRDHAKASH
आदिको जुदा जुदा माना जाता है उससमय स्पर्शन आदि इंद्रियां भिन्न भिन्न हैं । इसप्रकार यह 5 इंद्रियोंकी आपसमें भेद और अभेदकी व्यवस्था कही गयी है । इंद्रियवान पदार्थोंसे इंद्रियोंके भेद और अभेदकी व्यवस्था इसप्रकार है
जिसतरह अग्निसे तप्तायमान लोहके पिंडस्वरूप ही अग्नि परिणमित हो जाती है-लोहेके पिंडसे है भिन्न नहीं दीख पडती इसलिये वहां लोहेका पिंड और अग्नि दोनों एक माने जाते हैं उसीप्रकार वाह्य है और अंतरंग दोनों कारणोंसे आत्मा भी चैतन्यस्वरूप इंद्रिय पर्यायसे परिणमित है इसलिये आत्मा है और इंद्रिय दोनों एक हैं । इस रूपसे द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा इंद्रियां इंद्रियवान् आत्मासे कथंचित् ।
अभिन्न हैं और किसी एक इंद्रियके नष्ट हो जानेपर वा न रहनेपर भी आत्मा विद्यमान रहता है-इंद्रियके अभावमें उसका अभाव नहीं रहता इस अपेक्षा इंद्रियवान आत्मासे कथंचित् इंद्रियोंका भेद भी है । अथवा पर्यायीसे पर्याय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भिन्न माने हैं । यहां पर भी पर्यायी आत्मा और । पर्याय इंद्रियां हैं इसलिये पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा कथंचित् भेद रहनेसे भी इंद्रियवान आत्मासे कथंचित इंद्रियोंका भेद है । घट पदार्थके समान यदि इंद्रियोंको सर्वथा आत्मासे भिन्न माना जायगा तो आत्माको अनिद्रिय कहना पडेगा इसीतरह यदि सर्वथा अभिन्न माना जायगा तो इंद्रिय रूपसे जो संसारमें इंद्रियों का व्यवहार हो रहा है वह न होगा इसलिये इंद्रियवान् आत्मासे कथंचित् भेद और अभेद ही मानना युक्तियुक्त है। अथवा- । ।
जिससमय आत्मा और इंद्रिय इसप्रकार दोनों नामोंका अभेद मानाजायगा उससमय इंद्रियवान् आत्मा ६ पदार्थ और इंद्रिय दोनोंका अभेद है और जिससमय दोनों नामोंको भिन्न भिन्नमानाजायगा उससमय ।