Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ . जीव और पुद्गलोंका गमन आकाशके प्रदेशोंकी श्रेणीके अनुकूल होता है श्रेणी (प्रदेशोंकी पंक्ति वा क्रम ) को छोडकर विदिशारूप गमन नहीं होता। भावार्थ-मृत्यु होनेपर नवीन शरीर धारण करनेके लिये जो जीवोंका गमन होता है वह आकाशके प्रदेशोंकी श्रेणीमें ही होता है अन्य प्रकार नहीं। वार्तिककार श्रेणिशब्दका अर्थ बतलाते हैं
___ आकाशप्रदेशपंक्तिः श्रेणिः ॥१॥ ___लोकके मध्य भागसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे अनुक्रमसे रचनास्वरूप आकाशके प्रदेशोंकी जो पंक्ति है उसका नाम श्रेणी है।
अनौरानुपूयें वृत्तिः॥२॥ अनुशब्दका अर्थ आनुपूर्ण है। श्रेणीके आनुपूर्वी क्रमसे जो हो वह अनुश्रेणि कहा जाता है। है। अर्थात् जीव और पुद्गलोंका जो गमन होता है वह श्रोणिके आनुपूर्वी क्रमसे होता है प्रतिकूलरूपसे नहीं। शंका
जीवाधिकारात्पुलासंप्रत्यय इति चेन्न गतिग्रहणात् ॥३॥ यहांपर जीवोंका अधिकार चल रहा है इसलिये पुद्गलोंकी श्रेणिके आनुपूर्वी क्रमसे गति होती हू है यह कहना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। यहाँपर गतिका भी प्रकरण चल रहा है । यदि जीवोंकी ही
अनुश्रेणि गति इष्ट होती तो 'अनुश्रोण गतिः' यहांपर गतिशब्दका उल्लेख करना व्यर्थ था क्योंकि है
ROGRESOSIA