Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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फल करनेवालेको देकर ही निवृत्त होता है अर्थात् जैसा कार्य किया जायगा नियमसे उसका अनुक्ल फल कर्ताको भोगना पडेगा। जो चोरी और हिंसा करेगा उसके अनुकूल दुःखरूप फल उसे भोगना पडेगा और जो देवपूजा आदि शुभकार्य करेगा उसका सुखरूप फल भोगना होगा परंतु हां जिसप्रकार गीले वस्त्रको सिकोडकर रख दिया जाता है तो उस गीलेपनके विनाशका जितना काल निश्चित है उतने कालमें ही जाकर वह गीलापन नष्ट होता है और यदि हवा और घूपमें उस वनको फैला दिया । जाता है तो वीचमें ही उसका गीलापन नष्ट हो जाता है उसीप्रकार विष शस्त्र आदि वाह्य कारणोंके ट्र सन्निधान न होनेपर तो आयुका जितना काल निश्चित है उतना ही विद्यमान रहता है और उक्त वाह्य हैं। कारणोंके सन्निधान होनेपर कालके पूर्ण न होनेपर बीचमें ही मृत्यु हो जाती है यह विशेष है इसलिये अकालमृत्युका मानना सर्वथा युक्तियुक्त है। विशेष
अत्रौपपादिकादीनां नापवर्त्य कदाचन । सौंपाचमायुरीदृक्षादृष्टसामर्थ्यसंगतेः॥१॥
सामर्थ्यतस्ततोऽन्येषामपवलं विषादिभिः। सिद्धं चिकित्सितादीनामन्यथा निष्फलत्वतः॥२॥ . . बाह्यप्रत्ययानपवर्तनीयमायुःकर्मप्राणिदयादिकारणविशेषोपार्जित तादशादृष्टं तस्य सामर्थ्यमु. । दयस्तस्य संगतिः संप्राप्तिस्ततो भवधारणमौपपादिकादीनामनपवमिति सामर्थ्यादन्येषां संसारिणां तद्विपरीतादृष्टविशेषादपवयं जीवनं विषादिभिः सिद्धं । चिकित्सितादीनामन्यथा निष्फलत्वपतंगात् । नह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खड्गप्रहारादिभिमरणस्य दर्शनात् । प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शन मिति । चेत् कः पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालं वा प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता । द्वितीयपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपे- : क्षत्वप्रसंगः, सकलवहिःकारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः।शस्त्रसंपातादि वहि