Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याप
तरा०
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एकके पीछे दूसरा, दूसरेके पीछे तीसरा, इस प्रकार तिर्यक् रूपसे नगर ग्राम बने हुये हैं, ऊपर नीचे | द नहीं हैं किंतु समतलमें हैं उस प्रकार नरकावास नहीं हैं किंतु एकके नीचे दूसरा उसके नीचे तीसरा, इस रूपसे हैं। शंका
सामीप्याभावाद द्वित्वानुपपत्तिरिति चेन्नांतरस्याविवक्षितत्वात् ॥१०॥ जहाँपर ऊपर नीचे रहनेवाले पदार्थः पास पास स्थित रहते हैं वहां पर 'अघोध' शब्दका प्रयोग | होता है किंतु जहाँपर अधिक अंतर रहता है वहांपर उस शब्दका प्रयोग नहीं होता। रत्नप्रभा आदि
प्रत्येक भूमिका असंख्यात कोडाकोडी योजन प्रमाण अंतर माना गया है इसलिए समीपता न होनेसे छ 'अघोऽधः शब्दका प्रयोग नहीं हो सकता किंतु वहांपर 'अधः' अर्थात् नीचे है इसीका प्रयोग होना 0 चाहिये ? सो ठीक नहीं। यद्यपि प्रत्येक भूमिमें असंख्यात काडाकोडी योजन प्रमाण अवश्य अंतर है | परंत उस अंतरकी यहांपर विवक्षा नहीं इसलिए 'अधोधः यह प्रयोग बाधित नहीं कहा जा सकता। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि
जो पदार्थ विद्यमान न हो उसकी अविवक्षा तो की जा सकती है किंतु जो विद्यमान है उसकी ६। अविवक्षा कैसी ? प्रत्येक भूमिका बलवान अंतर विद्यमान है इसलिए उसकी अविवक्षा नहीं की जा
| सकती ? सो ठीक नहीं । जंघा पर सूक्ष्म रोमोंके रहते भी यह स्त्री अलामेकांडिका अर्थात् रामरहित ६ जंघावाली है तथा अत्यंत पतले पेटके रहते भी 'अनुदरा कन्या' यह कन्या पेटरहित है ऐसा संसारमें हूँ
१-लिखित प्रतिमें अलोमिका एडका ऐसा पाठ है, उसका अर्थ होता है कि जिस मेडेके वाल कतर दिये जाते हैं उसके भी मूलमें कुछ सूक्ष्म बाल रहते ही हैं फिर भी उसे अलोमिका वालरहित एड़का-मेडा कह दिया जाता है।
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