Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
है ऊंचाईसे घटता है, सो अमावस्याके दिन समतलसे जलकी ऊंचाई ग्यारह हजारप्रमाण रह जाती है।
इससे अधिक नहीं घटता, वहां जलकी चौडाईका प्रमाण ६९३७५ योजनप्रमाण रहता है। तथा शुक्ल| पक्षकी प्रतिपदासे बढती हुई एक पक्षमें पांच हजार योजन बढती है तब १६००० योजन जलकी ऊंचाई है। | हो जाती है। वहां चौडाई दश हजार योजन है।
तन्मध्ये दिक्षु महापातालानि योजनशतसहस्रावगाहानि ॥४॥ लवण समुद्रके ठीक मध्यभागमें चारो दिशाओं में समुद्रकी रत्नवेदिकासे पंचानवे हजार योजन | | प्रमाण तिरछे जाकर पृथ्वीमें विवर हैं। इन विवरोंके तल और पसवाडे वज्रमयी हैं। मृदंगके समान उन | विवरोंका आकार हैं। प्रत्येक एक एक लाख योजन प्रमाण गहरा, मध्यभागमें एक एक योजन ही चौडा, | तल और मूलभागमें दश दश हजार योजन विस्तृत हैं। इन विवरोंकी महापाताल संज्ञा है । वे कुल || चार हैं और पाताल १ वडवामुख २ यूपकेसर ३ और कलंबुक ४ ये उनके नाम हैं। | इन चारो महापातालों से पूर्व दिशामें पाताल, पश्चिम दिशामें वडवामुख, उत्तर दिशामें यूपकेसर
और दक्षिण दिशामें कलंबुक है । इन महापातालोंमें प्रत्येकके तीन तीन भाग हैं उनमें एक एक त्रिभाग 18|| तेतीस हजार तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनका तीसरा भाग कुछ अधिक है । उन महापाताल ६ विवरोंके नीचे त्रिभागमें पवन रहता है । मध्यके त्रिभागमें पवन और जल एवं ऊपरके त्रिभागमें है एक मात्र जल है। | रत्नप्रभा पृथिवीके खरभागमें भवनवासी वात कुमार देव रहते हैं साथमें उनकी देवांगनाओंकी क्रीडा प्रारंभ होती है उससे पवन क्षुब्ध होजाता है उससे पातालोंका उन्मीलन निमीलन अर्थात् खुलना
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