Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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B
अध्याप
स०रा०
बापा
तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यासिद्धिर्भरतरावतयोद्धिहासयोगः॥१॥ संसारमें तास्थ्यरूपसे ताच्छब्धका अर्थात् आधेयभूत पदार्थोंका कार्य आधारभूत पदार्थोंका मान लिया जाता है जिसप्रकार पर्वतमें विद्यमान वनस्पतियों के जलनेसे गिरिदाह-पर्वतका जलना माना जाता है उसीप्रकार भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके मनुष्योंमें वृद्धि हास होनेसे भरत ऐरावत क्षेत्रका वृद्धि हास कह दिया जाता है।
अधिकरणनिर्देशो वा ॥२॥ ___अथवा 'भरतैरावतयोः' यह अधिकरण निर्देश है । अधिकरण सापेक्ष पदार्थ है वह अपने रहते अवश्य आधेयकी आकांक्षा रखता है। भरत और ऐरावतरूप आधारके आधेय मनुष्य आदि हैं इसलिए यहांपर यह अर्थ समझ लेना चाहिये कि भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें मनुष्योंका वृद्धि और ह्रास || होता है। मनुष्योंमें किन २ बातोंका वृद्धि हास होता है वार्तिककार इस विषयको स्पष्ट करते हैंअनुभवायुःप्रमाणादिकृतौ वृद्धिहासौ ॥३॥ कालहेतुकौ स च कालो द्विविध उत्सर्पिण्यवसर्पिणी
चेति तद्भेदाः षट् ॥४॥ अनुभव आयु और प्रमाण आदिका मनुष्योंमें वृद्धि और ह्रास होता है। उपभोग और परिभोग IPI ( भोगोपभोग) की संपदाका नाम अनुभव है । जीवनका परिमाण आयु है और शरीरकी ऊंचाईका
नाम प्रमाण है। तथा यह जो अनुभव आदिका घटना बढना होता है वह कालहेतुक है-वह कालके द्वारा होता है। वह काल उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके भेदसे दो प्रकारका है और उनमें प्रत्येकके छह
छह भेद हैं अर्थात् उत्सर्पिणीकाल भी छह प्रकारका है और अवसर्पिणीकाल भी छह प्रकारका है। M उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालोंकी अन्वर्थसंज्ञाका वार्तिककार उल्लेख करते हैं
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