Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
गुणको धारण नहीं करते । चौथी पृथिवीसे निकलकर जो नारकी तियचोंमें जन्म धारण करते हैं उनमें || किन्ही किन्हीके मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान सम्यमिथ्यात्व और संयमासंयम होते हैं सबकै नहीं तथा इनसे भिन्न भी अन्यगुण उनके नहीं होते एवं जो नारकी मनुष्योंमें जन्म धारण करते हैं उनमें किन्ही | किन्हीके मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान सम्यक्त्व सम्यमिथ्यात्व संयमासंयम | | और संयम होते हैं सबोंके नहीं तथा उनमें कोई भी बलदेव बासुदेव चक्रवर्ती और तीर्थंकर नहीं होते BI किंतु कोई कोई समस्त कर्मोंको काटकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। ऊपरकी तीन पृथिवी अर्थात् रत्नप्रभा || || शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभासे निकलकर जो नारकी तिर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं उनमें किन्ही किन्हीके || मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान सम्यक्त्व सम्यमिथ्यात्व और संयमासंयम ये छहो होते हैं। इनमेंसे भी है। बलदेव वासुदेव और चक्रवर्ती नहीं होते। कोई कोई तीर्थंकर हो जाते हैं तथा कोई कोई समस्त |
कर्मोंको काटकर मोक्षप्राप्ति भी करते हैं । इसप्रकार रत्नप्रभा आदि सातो पृथिवियोंसे ब्याप्त अधोलो|| कका वर्णन किया जाचुका।।
विशेष-रत्नप्रभा आदि सातों भूमियोंके इंद्रक आदि विल और नारकी आदिका ऊपर बहुतसा || वर्णन कर दिया गया है। कुछ अवशिष्ट वातोंका यहां उल्लेख किया जाता है-सब भूमियोंके मिलकर | उनचास इंद्रक विले बतला आये हैं उन सबका विस्तार इसप्रकार है
पहिली रत्नप्रभा भूमिके पहिले इंद्रकका विस्तार पैंतालीस लाख योजनका है । दूसरे इंद्रकका || | चवालीस लाख आठ हजार तीनसौ तेतीस और एक योजनके तीन भागों में एक भाग है। तीसरे इंद्रकका तेतालीस लाख सोलह हजार छसौ छयासठ और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग है। चौथे
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