Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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BASTIBISHNA
निषीधति तस्मिन्निति निषधः॥५॥ जिस पर देव और देवियां क्रीडाके निमित्त आकर रहे वह निषध है इसप्रकार यह निषध पर्वतकी निषध संज्ञा है। और पृषोदरादिगणमें पाठ होनेसे यह व्याकरणानुसार शुद्ध शब्द है। यदि यहांपर यह । शंका की जाय कि यदि देव देवियोंके क्रीडार्थ ठहरनेसे पर्वतकी. निषष संज्ञा मानी जायगी तो देव हूँ । देवियां तो अन्य पर्वतों पर भी क्रीडा करने ठहरते हैं इसलिए उन्हें भी निषध के नामसे कहा जायगी ? ई ' सो ठीक नहीं । रूढिकी विशेषतासे निषधपर्वतकी ही निषध संज्ञा है अन्यकी नहीं इसलिए कोई दोष है नहीं । प्रश्न-निषधपर्वत कहांपर है ? उत्तर
___ हरिविदेहयोमर्यादाहेतुः॥६॥ हरिवर्षक्षेत्रके उत्तर और विदेहक्षेत्रसे दक्षिणकी ओर उन दोनों क्षेत्रोंका आपसमें विभाग करने ई वाला निषधपर्वत है । वह निषधपर्वत चारसौ योजन ऊंचा है । सौ योजनप्रमाण नीचे जमीनमें गहरा
है। सोलह हजार आठसौ व्यालीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागों में दो भागप्रमाण. चौडाडू है। इसकी पूर्व पश्चिमकी भुजाओंमें प्रत्येक भुजा बीस हजार एकसौ पैंसठ योजन और एक योजनके है उन्नीस भागोंमें दो भाग एवं अर्थ भाग किंचित् अधिक है। उचरदिशाकी ओरकी प्रत्यंचा चौरानो
इजार एकसौ छप्पन योजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमें दो भागकुछ अधिक है। इस प्रत्यंचाका 8 धनुषपृष्ठ एक लाख चौबीस हजार तीनसौ छियालीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागोंमें नव ॐ 8 भाग कुछ अधिक है।
इस निषधपर्वतके ऊपर सिद्धायतनकूट १ निषषकूट २ हरिवर्षकूट ३ पूर्वविदेहकूट १ हरिकूट ५
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