Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जिध्यान
5. क्या नारकियोंके शीत और उष्णजनित ही दुःख है किंवा अन्य प्रकारसे भी दुःख है ऐसा प्रश्न तारा भाषा || होने पर सूत्रकार उस अन्य दुःखका निरूपण करते हैं
परस्परोदीरितदुःखाः॥४॥ नारकी जीव आपसमें एक दूसरेको महान दुःख देते रहते हैं। हर एक समय उनका लडने और | झगडनेमें ही बीतता है। जिस रूपसे नारकी आपसमें एक दुसरेको दुःख देते हैं वह इस प्रकार है
निर्दयित्वात्परस्परदर्शने सति कोपोत्पत्तेः श्ववत् ॥१॥ जिस प्रकार कुचे सदातन, अकारण, अनादिकालसे होनेवाले जातीय वैरसे निर्दयी हो कर | आपसमें काटना भेदना छेदना आदि दुःखदायी क्रियाओंमें प्रवृत्त हो जाते हैं इसलिए वे आपसमें 8 महा दुःखी होते हैं उसी प्रकार नारकी भी मिथ्यादर्शनके उदयसे विभंग नामके एवं भवकारणक || अवधिज्ञानसे 'अमुक जीवने अमुक रूपसे मुझे कष्ट दिया था इस प्रकार पहिलेसे ही दुःखके कारणोंको || जानकर प्रथम तो खयं अत्यंत दुःखी हो जाते हैं । पश्चात् जिस जीवके द्वारा परभवमें कष्ट पहुंचाया हूँ ल गया था उसके समीपमें आने पर और देखने पर एक दम क्रोधाग्निसे प्रज्वलित हो जाते हैं और है।
अपनी विक्रियासे बनाये गये तलवार कुदाल फरसा और भिंडिपाल आदि शत्रोंसे तत्क्षण ही उसके | | शरीरको टूक टूक करने छेदने और पीडा देने आदिके लिए प्रवृत्त हो जाते हैं ऐसी चेष्टा सब ही नार|| कियोंकी प्रतिसमय रहती है इस रीतिसें समस्त नारकी आपसमें प्रतिसमय महा दुःखी बने रहते
ऊपर नारकियोंके दुःखके कारण बतलाये गये हैं क्या उतने ही उनके दुःखोत्पादक कारण हैं कि
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