Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
| परंतु वह भी ठीक नहीं। जिस समय रत्नप्रभा भामेका महानपना बतलाया जायगा उससमय उससे कम ||६|| परिमाणवाली तो कोई दूसरी नरक भूमि है नहीं, जिसकी अपेक्षा रत्नप्रभा भूमिको विशेष-महान कहा जाय इसलिये रत्नप्रभा भूमिमें तरप् प्रत्ययका अर्थ लागू नहीं हो सकता अतः समान्यरूपसे सातो भूमियोंमें नीचे नीचे महानपनेका द्योतक तरप् प्रत्ययका प्रयोग निर्दोष नहीं कहा जा सकता। __ दूसरी बात यह है कि प्रत्येक भूमिमें नरकोंके बिलोंका परिमाण उत्तरोत्तर कम माना गया है || । अर्थात् नारकियोंके रहने के स्थान बिले पहिले नरकमें तीस लाख हैं दूमरेमें पच्चीस लाख हैं। तीसरेमें || पंद्रह लाख, चौथेमें दशलख, पांचवेंमें तीन लाख, छठेमें पांचकम एक लाख और सातवेंमें केवल पांच | |बिले बतलाये हैं इसरीतिसे उत्तरोत्तर नरकों (बिलों) को हीनतासे रत्नप्रभा आदि भूमियों में नीचे नीचे | || एक दूसरेकी अपेक्षा महानपना हो नहीं सकता इसलिये 'अघोऽधः पृथुतराः' यहां पर तरप् प्रत्ययका | || प्रयोग निरर्थक ही है। यदि कदाचित् यहांपर यह कहा जाय कि___अधोलोकको वेत्रासन (वेतका मूढा) के आकार माना है जिसतरह वेत्रासनका आकार नीचे | नीचे बढता जाता है उसीप्रकार नरक भी नीचे नीचे अधिक विस्तारयुक्त माने गये हैं अर्थात्-प्रथम नरककी चित्रा पृथिवीसे दूसरे नरकके अंततक विस्तार एक राजू और एक राजूके सात भागोमेंसे छह | भाग है । तीसरे नरकके अंतमें दो राजू और एक राजूके सात भागोंमें पांच भाग है । चौथे नरकके अंतमें तीन राजू और एक राजूके सात भागोंमें चार भाग है । पांचवे नरकके अंतमें चार राजू और ६ एक राजू सात भागों में तीन भाग है। छठे नरकके अंतमें पांच राज और एक राजके सात भागों में दो
१ साती नरकोंमें सब बिले मिलकर चौरासी लाख है।
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