Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
दिशाओंमें एकसौ साठ और हर एक विदिशा में उनतालीस उनतालीस मिल कर चारों विदिशाओं एकसौ छप्पन इस प्रकार सब मिल कर तीनसौ सोलह विले हैं । ग्यारहवें व्युतकांत पाथडे में हर एक दिशामें उनतालीस उनतालीस मिल कर चारों दिशाओं में एकसौ छप्पन और हर एक विदिशामें अडतीस अडतीस मिल कर चारों विदिशाओं में एकसौ बावन इसप्रकार सब मिल कर तीनसौ आठ विले हैं। बारहवें अवक्रांत पाथडेमें हर एक दिशामें अडतीस अडतीस मिल कर चारों दिशाओंमें एकसौ बावन, हर एक विदिशामें सैंतीस सैंतीस मिल कर चारों विदिशाओं में एकसौ अडतालीस इस प्रकार सब मिल कर तीनसौ बिले हैं। तेरहवें विक्रांत पाथडेमें हर एक दिशामें सैंतीस सेंतीस मिल कर चारों दिशाओं में
एकसौ अडतालीस, प्रत्येक विदिशामें छत्चीस छत्चीस मिलकर चारों दिशाओं में एकसौ चालीस ए सत्र 1. मिलकर दोसौ बानबे विले हैं । ये सव श्रेणिवद्ध विले मिलकर चार हजार चारसौ बीस हैं । सीमंतक हूँ आदि उपर्युक्त तेरह पाथडोंमें सीमंतक आदि नामोंके ही धारक तेरह इंद्रकविले हैं । तेरह इंद्रकाले और है चार हजार चारसौ बीस श्रेणिवद्ध विले सत्र मिल कर प्रथम रत्नप्रभा भूमिमें चार हजार चरमौ तेतीस * श्रेणिवद्ध और इंद्रक विले हैं तथा उनतीस लाख पचानबे हजार पांच सौ अडसठ पुषाकीर्णक विले ह इस प्रकार सब मिल कर रत्नप्रभा भूमिमें कुल बिले तीस लाख हैं।
दूसरे नरकके ग्यारह पाथडे बतला आये हैं उनमें पहिले स्तनक पाथडे में चारों दिशाओं में मिल कर एकसौ चवालीस और चारों विदिशाओंमें एकसौ चालीस सब मिल कर दोसौ चौरामी विले हैं। दूसरे संस्तन पाथडेमें चारों दिशाओं में एकसौ चालीस और चारों विदिशाओंमें एकप्तौ छत्तीप्स इस प्रकार सब मिल कर दोसौ छिहत्तर विले हैं। तीसरे मनक पाथडेमें चारों दिशाओं में मिल कर एकसौ
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