Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
त०रा० माषा
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केवल पांच नरक हैं।ये नरक-बिले गोल त्रिकोण चौकोण इत्यादि अनेक प्रकारके हैं। अनेक उनमें संख्यात योजन के और अनेक असंख्यात योजनके लंबे चौडे हैं। बिलोंके अंतरालमें चारो ओर प्रत्येक विलके पृथिवी स्कंध है । जैसे ढोलको पृथिवीमें गाढ देनेपर चारो ओर पृथिवी रहती है और भीतर पोल रहती है उसीप्रकारसे पृथिवी स्कंधोंके बीचमें ढोलके भीतरकी पोलके समान ये विले हैं। इस सूत्रसे रत्नप्रभा आदि भूमियोंमें नरकोंकी संख्या प्रतिपादन की गई है।
त्रिंशदादीनां परस्पराभिसंबंधे वृचिः॥१॥ त्रिंशत् आदि शब्दोंका आपसमें संबंध रहनेपर यहां समास है और वह इस प्रकार है
पंचभिरून पंचोनं पंचोनं च तदकं च तत्पंचोनेके । त्रिंशच पंचविंशतिश्च पंचदश च दश च | त्रयश्च पंचोनकं च, त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकानि । शतानां सहस्राणि शतसहस्राणि, नरकाणां शतसहस्राणि नरकशतसहस्राणि । त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकानि च नरकशत-1|| | सहस्राणि च त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणि । अर्थात् त्रिंशत् आदिका नरक
शतसहस्र पदके साथ अन्वय करनेपर तीस आदि लाख नरक-विले हैं यह अर्थ इस द्वंदसमाससे यहां |
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यथाक्रमवचनं यथासंख्याभिसंबंधार्थ ॥२॥ सूत्रमें जो यथाक्रम शब्दका पाठ है वह रत्नप्रभा आदिका त्रिंशत् आदिके साथ क्रमसे संबंध है। कि यह अर्थ द्योतन करता है इसलिये सूत्रमें यथाक्रम वचनकी सामर्थ्यसे-रत्नप्रभामें तीस लाख बिले हैं
शर्कराप्रभामें पच्चीस लाख, वालुकाप्रभाग पंद्रह लाख, पंकप्रभामें दश लाख, धूमप्रभामें तीन लाख, तमः
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