Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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सिन्छ
अम्बान
भाषा
दुःखप्रतीकारार्थ इति चेन्नोभवथादर्शनात ॥१२॥ आयुर्वेदकी चिकित्सा अकालमृत्युके दूर करनेकेलिये नहीं की जाती किंतु रोगजन्य दुःखके दूर करनेके
लिये की जाती है ? सो ठीक नहीं। जिनके रोगजन्य कष्ट है उनकी भी चिकित्सा की जाती है और ७६७
जिनके रोगजन्य कष्ट नहीं है उनकी भी चिकित्सा की जाती है यदि रोगजन्य दुःखके दूर करनेके | लिये हो चिकित्सा होती तो जिन्हें कोई क्लेश नहीं है उनकी चिकित्सा नहीं होनी चाहिये थी परंतु |होती अवश्य उनकी चिकित्सा है इसलिये आयुर्वेदकी चिकित्सा अकालमृत्युके दूर करनेके लिये ही || मानी जायगी इस रातिसे अकाल मृत्युकी मिद्धि निर्वाध है । यदि यहॉपर यह शंका की जाय कि
कृतप्रणाशप्रसंग इति चेन्न दत्त्वैव फलं निवृत्तेः॥१३॥ ___ जब अकालमृत्यु सिद्ध है तब जो कर्म जिस व्यक्तिने किया है उसका उसे बिना फल मिले बीचमें || उसकी मृत्यु हो जानेसे-किया हुआ कर्म सब व्यर्थ जायगा । इसरीतिसे कृतप्रणाश दोष आता है ?/
सो ठीक नहीं। जो कार्य नहीं किया गया है उसका तो फल नहीं भोगा जा सकता और जो कार्य किया। या गया है उसके फलका विनाश नहीं हो सकता । यदि विना किये कार्यका भी फल भोगा जायगा तो | मोक्षका अभाव कहना पडेगा क्योंकि अकृत कार्यके फल सुख दुःख आदिका भोग सिद्धोंके भी संभव | होगा। तथा जहां सुख दुःखका संभव है वहां संसार है इस रूपसे कोई भी जीव सिद्ध वा मुक्त न कहा || जायगा। यदि किये गये कर्मके फलका नाश माना जायगा तो दान पूजा स्वाध्याय आदि क्रियाओंका लोप ही कर देना पडेगा। क्योंकि दान आदिका फल शुभगति आदिकी प्राप्ति है जब शुभगति आदि
४७१७ की प्राप्ति ही न होगी तब दान आदि क्रिया व्यर्थ ही है इसलिये जो कार्य किया जाता है वह अपना
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