Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ब.रा.
अध्याय
७५१
ASHISHASHASHESHABAD
प्रमाणसे भेद-सूक्ष्म निगोदिया जीवके शरीरका प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग होता है इस | लिए औदारिक शरीरका सर्व जघन्य प्रमाण तो अंगुलके असंख्यातवें भाग है और आठवें द्वीप नंदी-|| श्वरकी वापीके कमलके शरीरका प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजनका है इसलिए औदारिक
शरीरका उत्कृष्ट प्रमाण कुछ अधिक एक हजार योजन है। सर्वार्थसिद्धि के देवोंका वैक्रियिक शरीर एक म अरलि-हाथ प्रमाण है इसलिए जघन्यरूपसे तो वैक्रियिक शरीरका प्रमाण एक हाथ है और
सातवें नरकके नारकियों के शरीरका प्रमाण पांचसै धनुषका है इसलिए उत्कृष्टरूपसे वैकियिक | शरीरका प्रमाण पांचसै धनुषका है । तथा देव जंबूद्वीपके समान अपने शरीरको विक्रिया कर सकते हैं | इसलिए विकियाकी अपेक्षा उत्कृष्ट शरीर जंबूद्वीपके समान एक लाख योजनप्रमाण है । आहारक
शरीरका प्रमाण एकही हाथका (अरानि) है। जिस कालमें जितने प्रमाणका औदारिक शरीर धारण | किया है जघन्यतासे तो उतना ही तैजस और कार्मण शरीरोंका प्रमाण है और केवालिसमुद्धात । | अवस्थामें वे समस्त लोकमें फैल जाते हैं इसलिए उत्कृष्टतासे केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा तैजस और || कार्मणशरीरोंका प्रमाण सर्वलोक-असंख्येय प्रदेश समान है । इसप्रकार यह प्रमाणोंके भेदसे औदारिक | वैकियिक आदिका आपसमें भेद है।
क्षेत्रसे भेद-औदारिक वैकियिक और आहारक शरीरोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवां भाग है और | तेजस कार्मण शरीरोंका असंख्यातभाग एवं प्रतर वा लोकपूरण समुदातोंमें सर्वलोक है । इसप्रकार यह | क्षेत्रके भेदसे औदारिक आदिका भेद है।
स्पर्शनसे भेद-एक जीवकी अपेक्षा औदारिक आदिके स्पर्शका आगे व्याख्यान किया जायगा।
DISHSASISASSOSIASPESAR
BHADRE REA