Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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HESAGES
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COURAGAMACHARAKHA
हे सर्व जीवोंकी अपेक्षा उसका कथन इसप्रकार है-औदारिक शरीरद्वारा तियचोंसे समस्त लोक स्पृष्ट है
और मनुष्योंसे लोकका असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है। मूल वैकियिक शरीरसे लोकका असंख्यातवां भाग और उत्तर वैकियिक शरीरसे आठ राजू और उससे कुछ कम चौदह भाग स्पृष्ट है । और वे इस प्रकार हैं- . _' सौधर्मस्वर्गनिवासी देव स्वयं और अन्य देवोंकी सहायताकी प्रधानतासे आरण और अच्युत हूँ स्वर्गपर्यंत विहार कर आते हैं इसलिए ऊपर वे छह राजूपर्यंत लोकके क्षेत्रका स्पर्श करते हैं और अपनी है ही प्रधानतासे नीचे वालुका पृथ्वी पर्यंत विहार करते हैं इसलिए नीचे दो राज् क्षेत्रका स्पर्श करते हैं । है इसरीतिसे वे कुछ अधिक आठराजू क्षेत्रका स्पर्श करते हैं । आहारक शरीरसे लोकका असंख्यातवां * भाग स्पृष्ट होता है और तेजस एवं कार्मण शरीरोंसे समस्त लोक स्पृष्ट होता है । इसप्रकार यह 3 स्पर्शनके भेदसे औदारिक आदि शरीरोंका भेद है। एक जीवकी अपेक्षा कालके भेदसे औदारिक ६ आदि शरीरोंका भेद आगे कहा जायगा यहांपर अनेक जीवोंकी अपेक्षा भेद कहा जाता है____कालसे भेद-औदारिकमिश्रको छोडकर केवल औदारिक शरीरका जघन्य काल मनुष्य और तियों के अंतर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कुष्ट अंतर्मुहूर्त कम तीन पल्य प्रमाण है और वह अंतर्मुहूर्तकाल अपर्याप्तकका काल है क्योंकि अपर्याप्त अवस्थामें औदारिकमिश्रकी विद्यमानता रहती है। मूलवैकियिक और उत्तरवैकियिकके भेदसे वैकिीयक शरीरको दो प्रकारका माना है। उनमें देवोंकी अपेक्षा मूल वैकियिक शरीरका जघन्यकाल अपर्याप्तकका अंतर्मुहूर्तकाल घाटि दश हजार वर्ष प्रमाण है और
१-यह वैक्रियिक मिश्रका काल है इसीतरह भागे भी समझ लेना चाहिये।
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