Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
मध्या
श्यकता नहीं ? सो ठीक नहीं । औदारिकशरीर नामकर्म वैक्रियिकशरीर नामकर्म इत्यादि भिन्न भिन्न नामकर्मके भेद माने हैं इसलिए उनके उदयके भेदसे औदारिक आदि शरीरोंका भेद है । तथा
तत्कृतत्वेऽप्यन्यत्वदर्शनाद् घटादिवत् ॥१०॥ मिट्टीरूप कारणके अभेद रहनेपर भी जिसप्रकार घडा सरवा आदि पदार्थों का नाम और स्वरूप आदिक भेदसे भेद दीख पडता है उसीप्रकार कर्मरूप कारणका भलेही अभेद रहे तथापि नाम और ॐ स्वरूप आदिके भेदसे औदारिक आदि भिन्न भिन्न ही हैं। तथा
तत्प्रणालिकया चामिनिष्पत्तेः॥११॥ ___ कार्मण शरीरके द्वारा औदारिक वैक्रियिक आदि शरीरोंकी उत्पचि होती है इसलिए कार्मण शरीर कारण और औदारिक आदि शरीर कार्य हैं इसरातिसे कार्य कारणके भेदसे औदारिक आदि शरीरों को कार्मण शरीर नहीं कहा जा सकता । अथवा
विससोपचयेन व्यवस्थानात् क्लिन्नगुडरेणुश्लेषवत् ॥११॥ __ .जिसप्रकार गीले गुडमें धूलिके कण स्वाभाविक परिणामसे आकर मिल जाते हैं उसीप्रकार स्वाभा६ विक परिणामसे औदारिक आदि भी कर्ममें विद्यमान रहते हैं सर्वथा कर्म स्वरूप नहीं इसलिये कार्मण हूँ और औदारिक आदि शरीरों में आधार आधेयका भेद रहनेपर वे भिन्न भिन्न ही हैं अर्थात् औदाटू रिकादि शरीर तो नोकर्म हैं और कार्मण शरीर कर्म है इसलिये वर्गणाओंके भेदसे उनमें परस्पर भेद है।
: कार्मणमसन्निमित्ताभावादिति चेन्न निमित्तनिमित्तिभावात्तस्यैव पूर्वीपबत् ॥१३॥
ARRIERKARIERASTRIERRE
SARKok
RECEster
७२२