Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
भाषा
७१३
RI - तेजस और कार्मणमें अप्रतिघातरूप ही विशेष है कि और भी कुछ विशेष है। ऐसी शंका होने व०रा०
||| पर सूत्रकार कहते हैं 'अनादिसंबंधे चेति।' अथवा इस सूत्रको उत्थानिका इसप्रकार भी है-आत्मा अनादि ॥ है और शरीर सादि है । अनादि और नित्य आत्माका शरीरके साथ सम्बन्ध किस कारणसे है ? सूत्रकार इस शंकाका समाधान देते हैं
अनादिसम्बन्धेच॥४१॥ All ये दोनों शरीर आत्मासे अनादि कालसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं अर्थात् जबतक जीवोंका संसारमें | | रहना होता है तबतक बराबर इन शरीरोंका उसके साथ सम्बन्ध रहता है । तथा सादि सम्बन्ध भी। | रहता है।
चशब्दो विकल्पार्थः॥ १॥ बंधसंतत्यपेक्षयानादिः संबंधः सादिश्च विशेषतो बीजवृक्षवत् ॥२॥
सूत्रमें जो चशब्द है उसका अर्थ विकल्प है और तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरोंका आत्मा के साथ अनादि और सादि दोनों प्रकारका संबंध है यह उसका प्रयोजन है। दोनों सम्बन्धोंकी व्यवस्था | इसप्रकार है
जिस समय बीजसे वृक्ष, वृक्षसे बीज, बीजसे वृक्ष, वृक्षसे बीज इस प्रकार सामान्यरूपसे कार्य कारणरूप सम्बन्धकी विवक्षा की जाती है उस समय बीज और वृक्षका कार्य कारणरूप अनादि संबंध में जाकर फिर बादारक घरीर लौट पाता है। केवलियोंकी स्थिति ढाई द्वीपसे बाहिर नहीं होती इसलिये आहारक शरीरका गमन अधिकसे अधिक बाई द्वीप पर्यंत ही है। मनुष्यों का वैक्रियिक शरीर मनुष्पलोक पर्यंत ही गमन करता है तथा देवोंका सनाली पर्यंत गमन करता है अधिक नहीं इसलिये ये दोनों शरीर तैजस और कार्मण शरीरोंके समान सर्वत्र अप्रतिघाती नहीं। म.प्र.
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