Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
ह, देवोंके वह दोनों प्रकारकी विक्रिया होती है। सोलहस्वर्गके ऊपरके देवोंमें एकत्व विक्रिया ही होती है | PM और वह भी प्रशस्त ही होती है अप्रशस्त नहीं। छठे नरकतकके नारकियोंका शरीर त्रिशूल चक्र खड्ग | Cla
मुद्गर फरसा भिंडिमाल आदि अनेक आयुधस्वरूप परिणत हो जाता है इसलिये छठे नरक पर्यंत ३४३|| के नारकियोंके एकत्व ही विक्रिया होती है पृथक्त्वविक्रिया नहीं । सप्तम नरकके नारकियोंका शरीर ||
अनेक प्रकारके आयुधरूप नहीं परिणमता किंतु महागो नामके कीडेके प्रमाण लालवर्ण कुंथु जीवके | | शरीर स्वरूप परिणमता है इसलिये वहांपर भी एकस विक्रिया ही है पृथक्त्व विकिया नहीं। तिर्यंचोंमें ||
शरीरका कुमार युवा आदि परिणाम होता है इसलिये वहां भी विशेषरूप एकत्व विक्रिया ही है पृथक्त्व | विकिया नहीं और मनुष्योंमें तप और विद्या आदिके द्वारा विशिष्ट एकत्व और पृथक्त्व दोनों प्रकारकी विकिया होती है इसलिये वहांपर दोनों प्रकारकी विकियाओंका विधान है ॥२७॥ ___ उपर्युक्त लब्धिके द्वारा वैक्रियिक शरीरकी ही उत्पचि होती है वा अन्य भी किसी शरीरकी उत्पत्ति होती है ऐसी शंका होनेपर वैक्रियिक शरीरसे भिन्न भी शरीर लब्धिजन्य हैं. ऐसा सूत्रकार बतलाते हैंतैजसमपि॥४८॥
. तैजस शरीर भी ऋद्धि होनेसे प्राप्त होता है इसलिए वह भी लब्धिकारणक है।
औदारिकत्यादि सूत्रमें वैक्रियिकके बाद आहारक शरीरका उल्लेख किया गया है इसलिए वैकियिकके बाद आहारक शरीरका ही वर्णन करना चाहिए अनवसरप्राप्त तैजस शरीरका क्यों किया गया || वार्तिककार इस शंकाका समाधान देते हैं
लब्धिप्रत्ययापेक्षार्थ तैजसग्रहणं ॥१॥
INSISTARAK HANDARSHAN
BABURBARBIEBERRORIES