Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
ROTHERE
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'आचतुभ्यः' यहां पर आङ्का अर्थ अभिविधि है इसलिये चार तक शरीर होते हैं यह अर्थ होता है है । यदि मर्यादा अर्थ माना जाता तो चारसे भीतरके शरीर होते हैं यह अथ होता जो कि अनिष्ट
था। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि एक जीवके पांचो शरीर एक कालमें क्यों नहीं होते ? उसका ॐ समाधान शास्त्रकार देते हैं
वैक्रियिकाहारकयोयुगपदसंभवात् पंचाभावः ॥६॥ जिस संयमीके आहारक शरीर होता है उसके वैक्रियिक शरीर नहीं होता और जिस देव और नारकीके वैक्रियिक शरीर होता है उसके आहारक शरीर नहीं होता इसप्रकार आहारक और वैक्रिहै यिक शरीरका आपसमें विरोध है इसलिये एक साथ एक जीवके पांचो शरीर नहीं हो सकते ॥४३॥ शरीरोंकी ही विशेषताके ज्ञानकलिए और भी सूत्रकार कहते हैं
निरुपभोगमंत्यं ॥४४॥ अंतका कार्मण शरीर उपभोगरहित है अर्थात् इंद्रियों द्वारा होनेवाले शब्द आदिके उपभोगसे
जो अंतमें हो उसका नाम अंत्य है । 'औदारिकवैक्रियिकेत्यादि' सूत्रके क्रमकी अपेक्षा यहां पर अंस शब्दसे कार्मण शरीरका ग्रहण है । सूत्रमें जो निरुपभोग शब्दका उल्लेख किया गया है उससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि कार्मण शरीरसे अतिरिक्त जितने भी शरीर हैं सब सोपभोग हैं । शंकाकर्मादाननिर्जरासुखदुःखानुभवनहेतुत्वात्सोपभोगमिति चेन्न, विवक्षितापरिज्ञानात् ॥१॥ १ ७३०
इंद्रियनिमित्तशब्दाद्यपलब्धिरुपभोगः॥२॥
रहित है।
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