Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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आदिशब्देन व्यवस्थावाचिना शरीरग्रहणं ॥२॥ 'तदादीनि यहां पर आदिशब्दका अर्थ व्यवस्था है और वह पूर्व सूत्रमें व्यवस्थितरूपसे कहे गये शरीरोंका आनुपूर्वी क्रम प्रतिपादन करनेवाला आदि शब्द विशेषण है इसरीतिसे 'ते आदिर्येषां तानि तदादीनि' अर्थात् वे तैजस और कार्मण शरीर जिनकी आदिमें हैं वे तदादि कहे जाते हैं यह तदादि शब्दका स्पष्ट अर्थ है। शंका
पृथक्त्वादेव तेषां भाज्यग्रहणमनर्थकमिति चेन्न, एकस्य द्वित्रिचतुःशरीरसंबंधविभागोपपत्तेः॥३॥
भाज्यका अर्थ-'जुदे जुदे करने चाहिये यह है' औदारिक आदि शरीरोंके जुदे जुदै लक्षण माने | | गये हैं इसलिये वे स्वयं आपसमें जुदे जुदे होनेसे तथा आत्मासे भी जुदा होनेसे उनकी भित्रता प्रति
पादन करनेकेलिये भाज्य शब्दका ग्रहण व्यर्थ है ? सो ठीक नहीं। किसी आत्माके तैजस और कार्मण है ये दो ही शरीर होते हैं । किसौके औदारिक तैजस और कार्मण वा वैक्रियिक तैजस और कार्मण ये
तीन ही शरीर होते हैं और किसीके औदारिक आहारक तैजस कार्मण ये चार शरीर होते हैं इसप्रकार | al दो तीन और चार शरीरोंकी भिन्नता प्रतिपादन करनेकेलिये सूत्रमें भाज्य पदका उल्लेख किया गया है।
युगपदिति कालैकत्वे ॥४॥ युगपत् यह निपात शब्द है और उसका अर्थ एक काल है अर्थात् एक आत्माकेदो तीन आदिका जो ऊपर नियम बतलाया गया है वह एक कालकी अपेक्षा है-एक कालमें एक आत्माके चारसे अधिक है शरीर नहीं हो सकते किंतु कालके भिन्न होनेपर तो पांचो शरीर होते हैं।
आङभिविध्यर्थः॥५॥
KAKANGAREKA
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