Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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मध्यान
बरा०
कार्मण काययोगके द्वारा कर्मोंका ग्रहण झडना और सुख दुःखका अनुभव होता है इसरीतिसे ||5|| भाषा 18 जब काँका ग्रहण निर्जरण और सुख दुःखके अनुभवमें कारण कर्म है तब कार्मण शरीर सोपभोगही ७३९ र सिद्ध होता है निरुपभोग नहीं इसलिए उसे निरुपभोग कहना अयथार्थ है ? सो ठीक नहीं। इस प्रकरणमें है जो उपभोगका अर्थ लिया गया है वह उपभोग कार्मण शरीरमें नहीं क्योंकि इंद्रियों के द्वाराशब्द आदि है।
का ग्रहण होना' यह यहांपर उपभोग शब्दका अर्थ लिया गया है। विग्रहगतिमें भावस्वरूप इंद्रियोंके । | रहते भी द्रव्यस्वरूप इंद्रियोंकी रचनाका अभाव है इसलिए शब्द आदिका अनुभव न होनेसे कार्मण शरीर निरुपभोग ही है सोपभोग नहीं इसरीतिसे हमारे विवक्षित उपभोगके अर्थको न समझकर जो ||
वादीने कार्मण शरीरको सोपभोग सिद्ध करना चाहा था वह व्यर्थ हुआ। यदि यहांपर यह शंका की जाय | ६ कि तैजस शरीर भी निरुपभोग है क्योंकि उक्त उपभोगका लक्षण उसमें नहीं घटता फिर कार्मणशरीर र ही निरुपभोग क्यों कहा गया ? उसका समाधान शास्त्रकार देते हैं
तैजसस्य योगनिमित्तत्वाभावादनधिकारः॥३॥ है जो शरीर योगमें निमित्त हैं उन शरीरोंमें अन्तका शरीर निरुपभोग है औदारिक वैक्रियिक आ-1
हारक और कॉर्मण ये चार शरीर योगमें कारण हैं इसलिये इन सबके अन्तमें रहनेवाले कार्मण शरीर BI को निरुपभोग कहा है तैजस शरीर योगका कारण ही नहीं माना गया इसलिये उपभोगके विचारों उसका अधिकार न होनेसे उसे निरुपभोग नहीं कहा जा सकता। इस रीतिसे जब तैजस शरीरको
१-योगके पन्द्रद भेद हैं उनमें औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, पाहारक, पाहारकमि और कार्मण डू ये सात मेद काययोगके माने गए हैं इनमें तैजसयोग नामका कोई भी भेद नहीं माना गया इसलिए तैजस योगमें कारण नहीं है।
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