Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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BRURURSE-CLASPURNA
अशरीरं विशरणाभावादिति चेन्नोपचयापचयधर्मवत्वात् ॥१६॥ जिसप्रकार औदारिक आदि शरीर घटते घटते नष्ट हो जाते हैं उसतरह कामण शरीर घटता अध्याय घटता नष्ट होता नहीं दीख पडता इसलिये 'शीयंत इति शरीराणि' जो घटते घटते नष्ट हो जाय वे शरीर हैं इस व्युत्पाचेके आधीन कार्माण शरीरको शरीर नहीं कहा जा सकता? सो ठीक नहीं। निमिच कारणोंके दारा सर्वदा कर्मोंका आगमन और विनाश होता रहता है इसलिये घटना वढनारूप कार्य है ओदारिक आदिके समान कार्मण शरीरमें भी है इसलिये कार्मण शरीर, शरीर नहीं कहा जा सकता है यह कहना अयथार्थ है।
तद्ग्रहणमादाविति चेन्न तदनुमेयत्वात ॥१७॥ औदारिक आदि समस्त शरीरोंका आश्रय कार्मण शरीर है क्योंकि कार्मण शरीरके आधार और दारिक आदि शरीरोंकी रचना है इसलिये सबसे पहिले सूत्रमें कार्मण शरीरका उल्लेख करना चाहिये ? ६ सो ठीक नहीं। जिस प्रकार घट पट आदि कार्योंके देखनेसे उनके आश्रय परमाणुओका अनुमान कर हूँ लिया जाता है क्योंकि विना परमाणुओंके घट आदिका होना असंभव है उसीप्रकार औदारिक आदि कार्योंके देखनेसे उनके आश्रयस्वरूप कामण शरीरका भी अनुमान कर लिया जाता है क्योंकि विना कार्मण शरीरके औदारिक आदि शरीरका होना असंभव है कारण कार्यलिंगक होता है-कार्यसे उस का अस्तित्व जान लिया जाता है इसतिसे अनुमानसाध्य होनेसे कार्मण शरीरका सबसे पहिले सूत्र में उल्लेख नहीं किया जा सकता। . ___ तत एव कर्मणो मूर्तिमत्त्व सिहं ॥१८॥ .
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