Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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कार्मण शरीर नहीं माना जा सकता क्योंकि संसारमें जिसके निमिचकारण हैं वही पदार्थ सव भाषा ||8|| माना जाता है किंतु जिसके कारण नहीं है वह खरविषाणके समान असत् है ? सो ठीक नहीं । जिस- 18
६ प्रकार दीपक स्वयं प्रकाश्य और प्रकाशक दोनों स्वरूप है अर्थात् अपनेको प्रकाशित करनेमें स्वयं ही हूँ वह कारण और प्रकाशित होनेसे स्वयं ही वह कार्य है उसीप्रकार कार्मण शरीर भी निमिच निमिची|कारण कार्य दोनों स्वरूप है अर्थात् जिसप्रकार वह औदारिक आदि शरीरोंका उत्पादक है उसीप्रकार | वह अपना भी उत्पादक होनेसे स्वयं कारण और उत्पन्न होनेसे स्वयं ही कार्य है इसरीतिसे कारण और कार्यस्वरूप होने से कार्मण शरीर असत्पदार्थ नहीं कहा जा सकता। तथा
मिथ्वादर्शनादिनिमित्तत्वाच ॥ १४ ॥ इतरथा झनिर्मोक्षप्रसंगः॥१५॥ शास्रोंमें मिथ्यादर्शन अविरति आदिको कार्मण शरीरका कारण बतलाया है इसलिये 'कार्मण | शरीरका कोई निमिच नहीं है अतः वह कोई पदार्थ नहीं यह कहना असिद्ध है। तथा यह नियम है जिसका उत्पादक कारण नहीं होता वह नित्य पदार्थ माना जाता है नित्यको विनाशक कारण कोई
हो नहीं सकता इसलिये उसका सर्वदा अस्तित्व रहता है। यदि कार्मण शरीरका कोई भी उत्पादक 15 कारण न माना जायगा तो उसका कभी भी विनाश न हो सकेगा सदा उसका आत्माके साथ संबंध ६ रहेगा इसरीतिसे सर्वदा कर्मों के जालमें जिकडे रहनेके कारण किसी भी आत्माको कभी भी मुक्तिलाम 8
न हो सकेगा इसलिये कार्मण शरीर अकारण है-उसका उत्पादक कोई भी निमित्त कारण नहीं यह बात असिद्ध है। यदि यहांपर यह आशंका हो कि
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