Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
ACCORRECE
संख्यानातीतोऽसंख्येयः॥४॥ . . संख्याका अर्थ गणना है। जिसकी गणना न हो सके वह असंख्येय कहा जाता है और जो असं. ख्यातसे गुणित हो वह असंख्येयगुण है।
परंपरमित्यनुवृत्तेः पाक्तैजसादिति वचनं ॥५॥ ___'परं परं सूक्ष्म इस सूत्रसे यहाँपर परं परं' इसकी अनुचि है अर्थात् आगे आगेके शरीर प्रदेशों हूँ की अपेक्षा असंख्येय असंख्येयगुणे हैं परंतु यह प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्येयगुणपना कार्मण शरीर हूँ पर्यत भी प्राप्त होगा इसलिए मर्यादा सूचित करनेकेलिए 'प्राक् तेजसात्' यह वचन है अर्थात तेजस शरीरसे पहिले पहिलेके शरीरोंमें यह प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्येयगुणपना है आगेके शरीरोंमें नहीं है
प्रदेशत इति विशेषणमवगाहक्षेत्रनिवृत्त्ययं ॥६॥ यहां पर प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्येयगुणपना है अवगाहकी अपेक्षा नहीं अर्थात् 'पहिले पहिले शरीरों की अपेक्षा आगे आगेके शरीरों में प्रदेश अधिक अधिक है किंतु अवगाहनाकी अधिकता नहीं' यह बात बतलानेकेलिए सूत्रमें 'प्रदेशतः' यह विशेषण दिया गया है। यहां पर गुणकार पल्यका असं ख्यातवां भाग के दम RITAMगा है। यहा पर गुणकार पल्पका असं
असंख्यातगुणे प्रदेश हैं । वैक्रियिकसे आहा- हूँ रकके असंख्यातगुणे प्रदेश हैं, सूत्रका यह स्पष्ट अर्थ है । शंका
उत्तरोत्तरस्य महत्त्वप्रसंग इति चेन्न, प्रचयविशेषादयःपिंडतूलनिचयवत् ॥ ७॥ 'जब उचरोचर शरीरोंमें असंख्यात असंख्यातगुणे प्रदेशोंकी अधिकता है तब उनका परिमाण भी अधिक होना चाहिये ? सो ठीक नहीं। जिसप्रकार लोहेके पिंडमें अधिक परमाणु रहते हैं परंतु आपसमें
कर
स