Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यार
DISPREENADURGESPEE
घासादि शब्दोंमें 'अश्वाय घासः, अश्वघासः' अर्थात् घोडेकेलिए घास है यहांपर जिसप्रकार प्रकृतिके विकारके न रहते भी तादर्थ्यरूप अर्थमें समास माना है उसीप्रकार 'विग्रहगतिः' यहांपर भले ही प्रकृति का विकार न हो तथापि तादर्थ्य अर्थमें चतुर्थीसमास बाधित नहीं हो सकता। 'विग्रहाय गति' जिस 4 समय यह वाक्य रहता है उससमय तो चतुर्थी विभक्तिसे तादर्थ्यरूप अर्थ स्पष्टतया बाधित होता है। हूँ अथवा
विरुद्धो गृहो विग्रहो व्याघात इति वा ॥ २ ॥ विग्रहेण गतिर्विगृहगतिः॥३॥ विरुद्ध जो ग्रह है उसे विग्रह कहते हैं। विग्रहका नाम व्याघात है । उस व्याघातका अर्थ पुद्गला. घाननिरोध है अर्थात् अनेक प्रकारके पुद्गल जिसमें आकर इकट्ठे हों वह पुद्गलाधान-शरीर कहा जाता है उसका छूट जाना पुद्गलाधाननिरोध है । उस पुद्गलाधाननिरोधपूर्वक जो गति है उसका
नाम विग्रहगति है अर्थात् जिससमय जीव मरता है उससमय जो वह गमन करता है वह पुद्गलाधानहूँ निरोधपूर्वक शरीरको छोडकर ही गमन करता है।
विशेष-अश्वघास आदिके समान विग्रहगति यहांपर तादर्थ्यरूप अर्थमें चतुर्थीतत्पुरुष समास है है कहकर पुनः जो 'विग्रहेण गतिः, विग्रहगतिः' यह तृतीया तत्पुरुष समास माना है उसका खास मतलब है
यह है कि कई एक वैयाकरणोंने जहां प्रकृतिका विकार होगा वहीं तादर्थ्यरूप अर्थमें चतुर्थी समासको * इष्ट माना है किंतु जहाँपर प्रकृतिका विकार नहीं वहांपर उसे इष्ट नहीं माना इसीलिये प्रकृतिका " * विकृति भाव न रहनेसे अश्वघास आदि स्थलोंपर चतुर्थी तत्पुरुष न मानकर उन्होंने षष्ठी समास माना
१'अश्वघासादयातु पष्ठीसमासा' अर्थात् अश्वघास आदि शब्दोंमें षष्ठीतत्पुरुष समास है । सिद्धांत कौमुदी पृष्ठ७१ ।
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