Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
अभाव
अधिकृतगतिसामानाधिकरण्यात्लीलिंगनिर्देशः॥१॥ यहाँपर ऊपरसे गति शब्दकी अनुवृचि आरही है। गति शब्द स्त्रीलिंग है इसलिए 'अविग्रहा' यह Pil यहांपर विशेषणमें स्त्रीलिंगका निर्देश किया है। जिसमें एक समय लगे वह एकसमया कहलाती है।
| जिसमें एक भी विग्रह-मोडा न लगे वह अविप्रहा कही जाती है । गतिमान जीव और पुद्गलकी BI मोडारहित गति लोकके अग्र भाग पर्यंत भी एक ही समयमें निष्पन्न हो जाती है। नैयायिक वैशेषिक आदिकी ओरसे शंका- आत्मनोऽक्रियावत्त्वसिद्धरयुक्तमिति चेन्न क्रियापरिणामहतुसहावाल्लोष्ठवत् ॥२॥
आत्मा सर्वगत ( सर्वत्र रहनेवाला विभु) और निष्क्रिय है। उसके कोई क्रिया हो ही नहीं सकती | इसलिए उसके गतिरूप क्रियाकी कल्पना निरर्थक है ? सो भी ठीक नहीं। जिसतरह लोष्ठ (ढेला)
स्वयं क्रियारूप परिणमन करनेकी शक्तियुक्त है और वाह्य एवं अंतरंग दोनों प्रकारके कारणोंके मिल जानेपर वह एक देशसे दूसरे देशमें जाने स्वरूप गमनक्रिया करता देखा जाता है उसीप्रकार आत्मा भी क्रियापरिणामी है और कर्मके अनुसार वह जैसा शरीर धारण करता है उसीके अनुकूल क्रियाका करता अनुभवमें आता है तथा जिससमय शरीर आदि कर्मों का संबंध छट जाता है उससमय भी जिस प्रकार दीपककी शिखामें स्वाभाविक क्रिया होती रहती है उसीप्रकार आत्मामें भी प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है इसरीतिसे जब क्रिया आत्माका स्वभाव है तब वह निष्क्रिय नहीं कहा जा सकता और उसमें गतिरूप क्रियाकी कल्पना निर्हेतुक नहीं मानी जा सकती।
सर्वगतत्वे तु संसाराभावः॥३॥
C
R B5UBSCASSECRECENSI485A
EATERSTANDINITAmarpur
%3