Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
मा
जो पदार्थ सर्वगत होता है उसमें हलन चलन आदि क्रियाएं नहीं हो सकतीं। यदि आत्माको है सर्वगत माना जायगा तो उसमें किया तो कोई हो न सकेगी फिर एक गतिसे दूसरी गतिमें जानारूप जो संसार है उसका ही अभाव हो जायगा इसलिए आत्माको सर्वगत नहीं माना जा सकता॥२९॥
बंधसंतानकी अपेक्षा अनादि और कर्मों के संचयकी अपेक्षा सादि ऐसे द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव रूप पांच प्रकारके परिवर्तनोंके रहनेपर तथा मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद आदि कर्मों के उत्पादक । कारणोंके उपस्थित रहने पर उपयोगस्वरूप यह आत्मा सदा निरवच्छिन्नरूपसे कौंको ग्रहण करता रहता है यह सामान्यरूपसे आगमका सिद्धांत है। वहां पर यह शंका होती है कि क्या विग्रहगतिमें भी आत्मा आहारक अर्थात् तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता रहता है। इसलिये वहांपर नियमस्वरूप वचन सूत्रकार कहते हैं
एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः॥३०॥ विग्रहगतिवाला-जीव एकसमय दोसमय और तीनसमयतक अनाहारक है अर्थात् जघन्यसे जघन्य एकसमयतक जीव अनाहारक रहता है और अधिकसे अधिक तीनसमयतक, चौथेसमयमें ( नवीन शरीर धारणकर वह नियमसे आहारक बन जाता है फिर अनाहारक नहीं रहता।
समयसंप्रत्ययः प्रत्यासत्तः॥१॥ एकसमयाऽविग्रहा' इस पहिले सूत्रमें समयशब्दका उल्लेख किया गया है। प्रत्यासन्न होनेसे * उसकी इस सूत्रमें अनुवृत्ति है इसलिये 'एकसमय दोसमय तीनसमय पर्यंत' यह यहां अर्थ है । शंका
जिसका प्रघानरूपसे उल्लेख रहता है उसीकी अखंडरूपसे अनुवृत्ति होती है। एकसमयाऽविग्रहा'
६९६