Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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०रा० भाषा
अध्यवसायविशेषात्कर्मभेदे तत्कृतो जन्मविकल्पः ॥ १०॥ अध्यवसायका अर्थ परिणाम है और उसके असंख्येयलोकमात्र भेद हैं। परिणामोंके कार्य कर्म- अध्यान
बंधके भेद हैं और कर्मबंधोंके फल जन्मभेद हैं क्योंकि कारणके अनुकूल ही लोकमें कार्य दीख पडता ७०३ ा है। शुभ अशुभ जिसप्रकारका कर्म होता है उसीके अनुकूल जन्मोंकी उत्पचि होती है। शंका
प्रकारभेदाजन्मभेद इति चेन्न तद्विषयसामान्योपादानात्॥११॥ ॥ सूत्रमें जन्म पदार्थ विशेष्य और संमूर्छन आदि उसके विशेषण हैं इसलिए उन दोनोंका आपसमें | सामानाधिकरण्य संबंध है। यह नियम है ।जहांपर सामानाधिकरण्य रहता है वहांपर समानवचन होता है जिसतरह जीवादयः पदार्थाः' यहाँपर परस्परमें विशेषणं विशेष्यभाव एवं सामानाधिकरण्य संबंध है। है इसलिए दोनों जगह समान वचन है। 'समूर्छनगर्भोपपादा' यहाँपर भी संमूर्छन आदिके अनेक होने से बहुवचन है इसलिए 'जन्म' यहांपर भी बहुवचन होना चाहिए ? सो ठीक नहीं।जिसप्रकार 'जीवादयस्तत्त्वं' यहांपर जीव आदिका विषयभूत सामान्य, तत्व शब्दसे कहा गया है इसलिए तत्त्वं' यहांपर। एकवचन है उसीप्रकार संमूर्छन आदिका विषयभूत सामान्यका भी यहां जन्म शब्दसे कथन है इसलिए
'जन्म' यह एकवचनांत प्रयोगका ही उल्लेख है इसरीतिसे सामान्यकी अपेक्षा कथन होनेसे यहां उक्त ई दोष लागू नहीं हो सकता ॥३१॥" || जिसका ऊपरसे आधिकार चला आरहा है और जो संसारी जीवोंकी विषयोपभोगरूप उपलब्धिके अधिः | || ठान-शरीरका कारण है उस जन्मके योनिभेदोंका सूत्रकार वर्णन करते हैं-अर्थात् संसारी जीवोंको विषय-
भोगोंकी प्राप्तिके आधारभूत शरीरकी उत्पत्तिमें जो कारण है उस जन्मके योनिभेदोंका वर्णन करते हैं
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मामला