Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
स०रा० भाषा
CAREERENCIBABA
समंततौ मूर्छन संमूर्छनं ॥१॥ मूर्छनका अर्थ अवयवोंका बन जाना है। तीनों लोकोंमें योग्य द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप | का सामग्री निमिचसे जो ऊपर नीचे और तिरछे चारों ओरसे शरीरके अवयवोंका बन जाना है उसे हूँ संमूर्छन कहते हैं।
शुक्रशोणितगरणाद् गर्भः॥२॥ मात्रोपभुक्ताहारात्मसात्करणाहा ॥३॥ - जहाँपर पिताके शुक्र और माताके रजका मिलना हो उसका नाम गर्भ है अथवा माताके द्वारा
खाए गए आहारको जहाँपर आत्मसात् किया जाय अर्थात् माताके आहारको अपना आहार बनाया |जाय अथवा उस आहारका जहांपर मिश्रण हो उसे गर्भ कहते हैं।
उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्नित्युपपादः॥५॥ जिसमें आकार उत्पन्न हो वह उपपाद कहा जाता है। उपपूर्वक पद गतौ धातुसे हलः । २२३३११० इस सूत्रसे अधिकरण अर्थमें घञ् प्रत्यय करनेपर उपपाद शब्दकी सिद्धि हुई है। जिस स्थानपर देव
और नारकी उत्पन्न होते हैं उस स्थानकी यह विशेष संज्ञा है । इस रीतिसे संमूर्छन गर्भ और उपपाद ये | तीन प्रकारके जन्म संसारी जीवोंके हैं।
संमूर्छनग्रहणमादावतिस्थूलत्वात् ॥५॥ सब शरीरोंकी अपेक्षा संमूर्छनज शरीर अत्यन्त स्थूल है इसलिये सबसे पहिले सूत्रमें संमूर्छन १। इलः २-३-११८ । हलतादोः करणाधिकरणयोः पुंखौ घन स्यात् । जैनेन्द्र-व्याकरण । इसकी जगहपर हलश्च ३-३-१२१॥ | हलन्ताद घन स्यात् । यह सूत्र पाणिनीय व्याकरणमें है।
BABASABILARASIRSIBIOGRAPUR
.O
RG