Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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इतरयोनिभेदसमुच्चयार्थस्तु ॥८॥ . सूत्रमें जो योनिके भेद बतलाये हैं उनसे भिन्न भी बहुतसे भेद हैं उनके समुच्चयके लिये सूत्रमें चशब्दका उल्लेख है । सचिच आदि योनिभेदोंसे अतिरिक्त भेद कौन हैं वे आगे कहे जांयगे।
एकशो ग्रहणं क्रमामिश्रप्रतिपत्त्यर्थं ॥९॥ सचिचाचित शीतोष्ण संवृतविवृत इसप्रकार क्रमिक मिश्ररूप अर्थ जानने के लिये सूत्र में 'एकश': हूँ पदका उल्लेख किया गया है । 'एकशः' यह न कहा जाता तो सचिचशीत संवृतअचिच इत्यादि विपहै रीतरूप मिश्र अर्थका भी बोध होता। 'एकैक इति एकशः' यहांपर एकशब्दसे वीप्सा अर्थमें शस् है प्रत्यय करनेपर एकशः शब्दकी सिद्धि है।
तद्ब्रहणं क्रियते प्रकृतापेक्षाथ ॥१०॥ ___ऊपर कहे गये संमूर्छन आदिकी ये योनियां हैं यह अर्थ प्रकट करनेकेलिए सूत्रमें तत् शब्दका ६ प्रतिपादन है। 'तेषां योनयस्तधोनयः' यह तद्योनि शब्दका विग्रह है।
यूयत इति योनिः॥ ११ ॥ संचिचादिद्वंद्वे पुंवद्रावाभावो भिन्नार्थत्वात् ॥ १२॥
न वा योनिशब्दस्योभयलिंगत्वात् ॥ १३ ॥ . जिसमें जीव जाकर उत्पन्न हो उसका नाम योनि है। यह योनि शब्द सीलिंग है इसलिये उसके हैं है विशेषणस्वरूप सचित्त आदि शब्द भी स्त्रीलिंग हैं इसरीतिसे साचिचाश्च शीताश्च संवृतान सचिचशीत* संवृताः यहां पर पुंवद्भाव नहीं होना चाहिये अर्थात् उसकी जगह 'सचिचाशीतासंवृता' ऐसा प्रयोग , ७०६
होना चाहिये क्योंकि जहांपर समानलिंगक (पुंल्लिग ही) आश्रय रहता है वहींपर पुंवद्भाव होता है
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